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________________ जिनकल्प और स्थविरकल्प ३०५ के उपरान्त औत्सगिक अथवा आपवादिक लिङ्ग रखने की आज्ञा से यह भी सिद्ध है कि पहले दिगम्बर सम्प्रदायवाले धार्मिक योग्यता के नाते स्त्री और पुरुषों में कुछ भी अन्तर नहीं मानते थे । यद्यपि स्त्री को सर्वथा नग्न रहने का निषेध था तथापि उनकी आत्मोन्नति की योग्यता पुरुषों से हीन नहीं मानी गई थी जैसा कि पिछले आचार्यों ने माना है । पिछले आचार्यों ने स्त्रियों में पंचम गुणस्थानक से आगे बढ़ने की योग्यता ही नहीं मानी, फिर वह चाहे मास-मास के उपवास करनेवाली और चारित्र पालनेवाली आर्या (साध्वी) ही क्यों न हो । पिछले दिगम्बर ग्रन्थकारों के मत से वह उतनी ही आत्मोन्नति करेगी जितनी कि एक देशविरति गृहस्थ श्रावक कर सकता है, परन्तु हम समझ सकते हैं कि भगवती-आराधनाकार आचार्य शिव आर्या और साधु की योग्यता में कोई अन्तर नहीं समझते थे। यही कारण है कि उन्होंने आर्याओं के मरण को 'बाल-पण्डित-मरण' न मानकर 'पण्डित-मरण' माना है । यद्यपि प्राचीन दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थों में श्रमण और आर्याओं की उपधि में क्या क्या उपकरण रहते थे, इसका कुछ निर्णय नहीं देखा जाता, तथापि उक्त आपवादिक लिङ्ग के विधान से और इसी ग्रन्थ के कतिपय अन्य लेखों से यह निश्चित है कि वे वस्त्र और पात्र रखते अवश्य थे, पर इस प्रवृत्ति को वे 'उत्सर्ग मार्ग' न कह कर 'अपवाद मार्ग' कहते थे । पाठकों के विलोकनार्थ हम उन उल्लेखों को यहाँ उद्धृत करेंगे जिनसे कि दिगम्बर सम्प्रदाय में भी साधुओं के लिये पात्रों का रखना अनिवार्य ठहरता है । साधु द्वारा किये जानेवाले कायिक विनय का वर्णन करते हुए शिवार्य (दर्शनप्राभृत टीका पृ० २१) उपर्युक्त टीका के पाठ में श्रुतसागर सूरि ने दो बातें कही हैं । पहली यह कि पिछले समय में दिगम्बर भट्टारकों में जो वस्त्र पहनने की प्रवृत्ति चली उसका आरम्भ मांडवगढ़ मे भट्टारक वसन्तकोति से हुआ था । दूसरी बात टीकाकार ने यह कही कि राजादिवर्ग का मनुष्य वैराग्यशील हो, जो लिंगशुद्धि रहित हो, जिसकी पुरुषेन्द्रिय विकृत हो अथवा जो लज्जाशील हो या ठंडी आदि सहन करने में असमर्थ हो वह वैसा कर सकता है, अर्थात् अपवाद लिंग रूप टाट, (चटाई) वस्त्र आदि से अपनी लज्जा और शीत दूर कर सकता है । श्रमण-२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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