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श्रमण भगवान् महावीर को भी संथारा लेने के समय औत्सगिक लिङ्ग (नग्नता) धारण करना श्रेष्ठ है।
"जिसको विहारचर्या में मानसिक, वाचिक और कायिक दोष निश्चितरूप से लगे हों वह भी संस्तारक के समय औत्सर्गिक लिङ्ग धारण कर ले ।"
संस्तारक के समय कारण से विशेष आपवादिक लिङ्ग भी रह सकता है । इसके सम्बन्ध में वे कहते हैं- "यदि स्थान योग्य न हो, संस्तारक लेनेवाला महद्धिक या लज्जाशील हो, म्लेच्छ लोगों की बस्ती हो, स्वजन वहाँ विद्यमान हों तो आपवादिक लिङ्ग भी रह सकता है।"
"स्त्री भी परिमित उपधि रखती हुई उनके लिये जो औत्सर्गिक और आपवादिक लिङ्ग कहा है उसमें रहे ।"
यहाँ पर यह भी बता देना चाहिये कि आर्य शिव अचेलकता, केशलोच, व्युत्सृष्टशरीरता और प्रतिलेखन इन चार बातों को औत्सर्गिक लिङ्ग कहते हैं । आपवादिक लिङ्ग में किन किन बातों की छूट होती थी, इसका यद्यपि उन्होंने खुलासा नहीं किया तथापि महद्धिक और लज्जाशील को आपवादिक लिङ्ग की छूट देने से यह बात स्वयं सिद्ध हो जाती है कि इस आपवादिक लिङ्ग में वस्त्र की छूट अवश्य होती थी । स्त्री को परित्त उपधि
१. दर्शनसार की चौबीसवीं गाथा की टीका में दिगम्बराचार्य श्री श्रुतसागरसूरि ने भी आपवादिक लिङ्ग में वस्त्रादि रखना ही स्वीकार किया है
"सहजुप्पण्णं रूवं, दटुं जो मण्णए ण मच्छरिओ ।
सो संजमपडिवण्णो, मिच्छादिट्ठी हवइ एसो ॥२४॥"
"टीका-मिच्छादिट्ठी हवइ एसो-मिथ्यादृष्टिर्भवत्येषः । अपवादवेषं धरनपि मिथ्यादृष्टितिव्य इत्यर्थः । कोऽपवाद वेषः ? कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुञ्चतीत्युपदेशः कृतः । संयमिनां इत्यपवादवेषः । तथा नृपादिवर्गोत्पन्नः परमवैराग्यवान् लिंगशुद्धिरहितः उत्पन्नामेहनपुटदोषः लज्जावान् वा शीताद्यसहिष्णुर्वा तथा करोति सोऽप्यपवादलिंगः प्रोच्यते । उत्सर्गवेषस्तु नग्न एवेति ज्ञातव्यम् । सामान्योक्तो विधिरुत्सर्गः । विशेषोक्तो विधिरपवाद इति परिभाषणात् ।"
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