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जिनकल्प और स्थविरकल्प
३०३ होना, उनकी सहस्रमल्ल और चण्डकर्ण जैसी उपाधियाँ और दीक्षा लेने के बाद राजा की तरफ से अमूल्य कम्बल की भेंट इत्यादि ऐसी बातें हैं कि शिवभूति के राजकर्मचारी होने और कुटुम्ब के अपमान से घर छोड़ चल निकलने की बात को सत्य मानने में कुछ भी सन्देह नहीं रहता । साथ ही ऐसे राजमान्य मनुष्य को राजा की तरफ से मिली हुई भेंट के सम्बन्ध में गुरु का उपालम्भ और उस चीज का नाश कर देना, यह भी अवश्य अपमानजनक घटना है । इस घटना से उत्तेजित शिवभूति का गुरु से विरुद्ध होना, और वह भी वस्त्र के ही सम्बन्ध में, बिलकुल स्वाभाविक है ।
शिवभूति ने आर्य कृष्ण से उपधि न रखने के सम्बन्ध में जो दलीलें की हैं उनका सार इतना ही है कि उपधि कषाय, मूर्छा और भय इत्यादि का कारण है । उन्होंने यह नहीं कहा कि उपधि रखने से मुक्ति ही नही होती । इसके विपरीत वे आर्या उत्तरा को वस्त्र रखने की सम्मति देते हैं, क्योंकि साधु को अचेलक होने के विषय में तो शास्त्र का आधार था पर स्त्री को वैसा करने के सम्बन्ध में कल्पाध्ययन की स्पष्ट निषेधाज्ञा थी । शिवभूति इस बात से अनभिज्ञ हों यह संभव नहीं था और इसिलीये उन्होंने उत्तरा को अचेलक न होने की आज्ञा दी थी । इस विषय में गणिका द्वारा उसे वस्त्र देने की जो बात कही गयी है, संभव है वह द्वेष का परिणाम मात्र हो ।
___यद्यपि शिवभूति ने वस्त्र-पात्र न रखने का उत्कृष्ट जिन कल्प स्वीकारा था तथापि आगे जाकर उन्हें अनुभव हुआ कि इस प्रकार का उत्कृष्ट मार्ग अधिक समय तक चलना कठिन है। अतएव उन्होंने साधुओं के आपवादिक लिङ्ग का भी स्वीकार किया ।
पाठकगण हमारी इस बात को कोरी कल्पना न समझें, क्योंकि इसी सम्प्रदाय के प्राचीन ग्रन्थों से यह बात प्रमाणित होती है ।
दिगम्बर सम्प्रदाय के धुरन्धर आचार्य आर्यशिव जो कि स्वयं हस्तभोजी थे अपने 'भगवतीआराधना' ग्रन्थ में लिखते हैं-"जो औत्सर्गिक लिङ्ग में रहनेवाला हो उसके लिए तो वह है हो, पर आपवादिक लिङ्गवाले
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