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________________ जिनकल्प और स्थविरकल्प ३०१ "कालान्तर में साधु फिर वहाँ आये । राजा ने शिवभूति को एक बहुमूल्य कम्बल दिया । आचार्य ने कहा—साधुओं को इसकी क्या जरूरत है ? तू ने यह क्यों लिया ? यह कहकर बगैर पूछे ही कंबल को फाड़ कर उसकी निषद्यायें (निशीथियें) कर दी । इससे शिवभूति बहुत नाराज हुआ । "एक दिन जिनकल्पिक साधुओं का वर्णन हो रहा था कि जिनकल्पिक दो प्रकार के होते हैं--पाणिपात्र और पात्रधारी । इस समय शिवभूति ने पूछा-आजकल इतनी उपधि क्यों रखी जाती है ? जिनकल्प क्यों नहीं किया जाता ? आचार्य ने कहा नहीं किया जा सकता । इस समय उसका विच्छेद हो गया है । शिवभूति बोला-विच्छेद कैसे हो जाय ? मैं करता हूँ। परलोकार्थी को यही करना चाहिये । उपधि-परिग्रह क्यों रखना चाहिये ? परिग्रह में कषाय, मूर्छा, भय आदि बहुत दोष हैं । शास्त्र में भी अपरिग्रहत्व ही कहा है । जिनेश्वर भगवान् भी अचेलक ही थे । इसलिये अचेलकता ही अच्छी है । गुरु ने कहा-तब तो शरीर का भी त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि किसी को इसपर भी कषाय मूर्छादि हो जाते हैं । शास्त्र में अपरिग्रहत्व कहा है, पर उसका तात्पर्य इतना ही है कि साधु को धर्मोपकरण पर भी मूर्छा नहीं करनी चाहिये । जिन भी एकान्त अचेलक नहीं थे । शास्त्र में कहा है कि सभी जिनवर एक देवदूष्य के साथ दीक्षित हुए थे। इस प्रकार स्थविरों ने शिवभूति को समझाया, पर कर्मोदय के वश वह वस्त्रों को छोड़ कर चला गया । उत्तरा नामकी उसकी एक बहन थी । वह उद्यान स्थित शिवभूति के वंदनार्थ गयी और उसको देखकर उसने भी अपने वस्त्र छोड़ दिये । वह भिक्षार्थ गाँव में गई । उसे देखकर एक गणिका ने, यह सोचकर कि इसे देखकर लोग हम से भी विरक्त हो जायंगे उसके उरप्रदेश पर एक वस्त्र बांध दिया । यद्यपि उसकी इच्छा वस्त्र रखने की नहीं थी, पर शिवभूति ने कहा--'रहने दे, यह तुझे देवता ने दिया है ।' "उसने कोंडकुण्ड' और वीर नामक दो शिष्य किये और तब से १. भाष्य का पाठ "कोडिनकोट्टवीरा" है जिसका चूर्णिकार ने 'कोडिन' और 'कोट्टवीर' इस प्रकार पदच्छेद किया है और इन्हें शिवभूति का शिष्य लिखा है, परन्तु हमारे विचार में 'कोडिनकोट्ट' यह कोण्डकुण्ड का अपभ्रंश है और 'वीर' यह वीरनन्दी वीरसेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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