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श्रमण भगवान् महावीर किये गये थे । यद्यपि रोहगुप्त, गांगेय वगैरह के मिल जाने के कारण वह पक्ष कुछ समय के लिये विशेष आग्रही बन गया था, पर अन्त में वह निर्बल हो गया । आर्य महागिरि के शिष्यप्रशिष्यों के स्वर्गवास के बाद दो तीन पीढ़ी तक चल कर वह नामशेष रह गया ।
इस प्रकार आचाराङ्ग के एक उल्लेखरूप बीज से सचेलकताअचेलकता के मतभेद का अंकुर उत्पन्न हुआ और कुछ समय के बाद मुरझा गया । यद्यपि इस तनातनी का असर स्थायी नहीं रहा, तथापि इतना जरूर हुआ कि पिछले आचार्यों के मन में आर्य महागिरि के शिष्यों के संबंध में वह श्रद्धा नहीं रही जो वैसे श्रुतधरों के ऊपर रहनी चाहिये थी । यही कारण है कि वालभी युगप्रधान पट्टावली में आज हम महागिरि के शिष्य बलिस्सह और स्वाति जैसे बहुश्रुतों का नाम नहीं पाते । उधर आर्य सुहस्ती की स्थविरपरम्परा प्रतिदिन व्यवस्थित और प्रबल हो रही थी और आर्य वज्र तक इसी प्रकार उन्नति करती रही, पर आर्य वज्र के समय में दो बार पड़े हुए दीर्घकालीन दुभिक्षों के कारण जैन श्रमणसंघ बहुत छिन्न-भिन्न हो गया । वज्र प्रभृति सैकड़ों स्थविर दुष्काल के कारण अनशन करके परलोक सिधार गये । शेष जो बचे थे वे भी एक दूसरे से बहुत दूर चले गये थे । यद्यपि वज्र के बाद आर्यरक्षित, जो कि सर्वसम्मति से संघस्थविर नियत हुए थे, अंततक संघस्थविर रहे, पर आर्यरक्षित के स्वर्गवास के बाद स्थविरों में दो दल हो गये ।
जो श्रमणगण दुष्काल के कारण पूर्व एवं उत्तर में दूर तक चले गये थे उन्होंने आर्यरक्षित के बाद आर्य नन्दिल को अपना नया संघ-स्थविर नियत कर लिया । जो श्रमणगण दक्षिण, पश्चिम और मध्यभारत में विचरते थे उन्होंने आर्यरक्षित के बाद उनके शिष्य पुष्यमित्र को संघ-स्थविर माना जो आर्यरक्षित के उत्तराधिकारी थे । इस प्रकार विक्रम की दूसरी सदी में श्रमण संघ की यद्यपि दो शाखायें हो गई थीं तथापि उनके आचारमार्ग में कुछ भी शिथिलता नहीं आने पाई थी । सभी श्रमणगण आचाराङ्गसूत्र के अनुसार एक-एक पात्र
और मात्र शीतकाल में ओढ़ने के लिये एक, दो या तीन वस्त्र रखते थे । चोलपट्टक का अभी तक प्रचार नहीं हुआ था, पर कटिबन्ध (अग्गोयर
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