________________
जिनकल्प और स्थविरकल्प
२९७
जिनकल्प का आचरण बंद पड़ गया और लगभग डेढ़ सौ वर्ष तक उसकी कछ भी चर्चा नहीं हुई । स्थविरकल्प में रहनेवाले साधु यद्यपि नग्नप्राय रहते थे, तथापि शीतनिवारणार्थ कुछ वस्त्र और एक पात्र अवश्य रखते थे । यह स्थिति भद्रबाहु के पट्टधर आर्य स्थूलभद्र तक बराबर चलती रही ।
आर्य स्थूलभद्र के शिष्यों में से सब से बड़े आर्य महागरि ने पिछले समय में अपना साधुगण आर्य सुहस्ती को सौंप दिया और आप वस्त्रपात्र का त्याग कर जिनकल्पिक साधुओं का सा आचार पालने लगे । यद्यपि वे स्वयं जिनकल्पिक होने का दावा नहीं करते थे तथापि उनका झुकाव वस्तुतः जिनकल्प की ही तरफ था ।
उस समय के सब से बड़े श्रुतधर होने के कारण आर्य महागिरि के इस आचरण का किसी ने विरोध नहीं किया, बल्कि जिनकल्प की तुलना करनेवाले कहकर उनके सतीर्थ्य आर्य सुहस्ती जैसे युगप्रधान ने उनकी प्रशंसा की, पर आगे जाते यह प्रशंसा महँगी पड़ी । आर्य महागिरि तो वीरनिर्वाण संवत् २६१ में स्वर्गवासी हो गये, पर उन्होंने जो जिनकल्प का अनुकरण किया था उसकी प्रवृत्ति बंद नहीं हुई । उनके कतिपय शिष्यों ने भी उनका अनुकरण किया । परिणामस्वरूप आर्य महागिरि और सुहस्ती सूरि के शिष्य गण में अन्तर और मनमुटव बढ़ने लगा और अन्त में खुल्लमखुल्ला नग्नचर्या
और करपात्रवृत्ति का विरोध होने लगा । महागिरि की परम्परावाले आचाराङ्ग के अचेलकत्व प्रतिपादक उस उल्लेख से अपनी प्रवृत्ति का समर्थन करते थे, तब विरोध पक्ष वाले उस उल्लेख का अर्थ जिनकल्पिकों का आचार होना बताते थे और स्थविरों के लिये वैसा करना निषिद्ध समझते थे । वे कहते थे कि “बिलकुल वस्त्र न रखना और हाथ में भोजन करना जिनकल्पिकों का आचार है, स्थविरकल्पिकों को उसकी तुलना भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि जब इस समय उत्तम संहनन न होने से जिनकल्प पाला ही नहीं जाता तो उसका स्वांग करने से क्या लाभ ?' इस प्रकार दोनों की तनातनी बढ़ती जाती थी । सम्भवतः आर्य महागिरि का शिष्य रोहगुप्त और प्रशिष्य आर्य गंग भी बाद में जिनकल्पिक पक्ष में मिल गये थे जो कि तीन राशियों के और दो क्रियाओं के अनुभव की प्ररूपणा करने के अपराध में संघ से बहिष्कृत
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org