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________________ २९६ श्रमण भगवान् महावीर पंचवस्त्रत्याग, अकिंचनता, प्रतिलेखन, पंच महाव्रतों का धारण-करना, खड़े भोजन, एक बार भोजन, हाथ में भोजन (वह भी समय पर भक्तिपूर्वक दिया हुआ), भिक्षा की याचना न करना, दो प्रकार के तप में उद्यम करना, सदाकाल छ: प्रकार का आवश्यक करना, भूमिशयन, केशलोच और जिनवर के जैसा प्रतिरूप ग्रहण करना । ___"संहनन के गुण और दुःषमकाल के प्रभाव से आजकल स्थविरकल्पस्थित साधु पुर, नगर और ग्रामवासी हो गये हैं और उन्होंने वह उपकरण भी ग्रहण किया है जिससे कि चारित्र का भंग न होता हो । योग्य होने पर पुस्तकदान भी स्वीकार करते हैं । समुदाय से विहार, यथाशक्ति धर्मप्रभावना, भव्य जीवों को धर्मोपदेश, शिष्यों का पालन तथा ग्रहण स्थविरकल्पिकों का आचार है । यद्यपि संहनन तुच्छ, काल दुःषम और मन चपल है तथापि धीर पुरुष महाव्रतों का भार उठाने में उत्साहवान् हैं ।। "पूर्वकाल में उस शरीर से हजार वर्ष में जितने कर्मों का नाश करते थे, आजकल के हीनसंहननी एक वर्ष में उतने कर्मों की निर्जरा करते हैं । अब हम महावीर के शासन में 'श्वेताम्बर' और 'दिगम्बर' नामक दो शाखाएं निकलने के कारण पर विचार करेंगे । मतभेद का अङ्कुर कुछ युरोपीय और भारतवर्षीय विद्वानों का यह ख्याल है कि महावीर के निर्वाण के बाद तुरन्त ही उनके शिष्यों में दो विभाग हो गये थे । पर वास्तव में यह बात नहीं है । जिन बौद्ध उल्लेखों के आधार पर वे ऐसा ख्याल करते हैं वे उल्लेख वस्तुतः महावीर की जीवित अवस्था में उनके शिष्य जमालि द्वारा खड़े किये गये मतभेद के सूचक हैं । यह बात हम ने 'वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना' नामक पुस्तक में प्रमाणपूर्वक समझा दी है। जहाँ तक हम समझते हैं इस मतभेद का बीज 'आचाराङ्गसूत्र' का वह उल्लेख है कि जिसमें साधु को अचेलक रहने में लाभ बताया है । महावीर निर्वाण के बाद चौंसठ वर्ष तक उनके शिष्यों में स्थविरकल्पिक और जिनकल्पिक दोनों तरह के साधु रहे, पर बाद में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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