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________________ जिनकल्प और स्थविरकल्प २९५ से अपना निभाव करते हैं वे एक दूसरे की निन्दा नहीं करते क्योंकि वे सभी जिनाज्ञा में चलते हैं ।" अब हम भाष्यकालीन अर्थात् विक्रम की दूसरी तीसरी सदी के स्थविरों के वेष और उपकरणों का वर्णन करेंगे भाष्यकाल में स्थविरों के उपकरणों में कुछ वृद्धि हो गई थी । यद्यपि तीन वस्त्र, कटिबन्ध और एक पात्र रखने की रीति पहले से ही चली आती थी पर उसमें खास परिवर्तन यह हुआ था कि पहले जो कटिबन्ध नामक एक छोटा चिथड़ा कमर पर लपेटा जाता था और जिसके दोनों अंचल गुह्य भाग ढाँकने के निमित्त आगे की तरफ लटके रहने के कारण 'अग्रावतार' भी कहलाता था, उसका स्थान अब चोलपट्टक ने ग्रहण कर लिया था । पहले प्रतिव्यक्ति एक ही पात्र रक्खा जाता था पर आर्यरक्षितसूरि ने वर्षाकाल में एक 'मात्रक' नामक अन्य पात्र रखने की जो आज्ञा दे दी थी उसके फलस्वरूप आगे जाकर 'मात्रक' भी एक अवश्य धारणीय उपकरण हो गया । इसी तरह झोली में भिक्षा लाने का रिवाज भी लगभग इसी समय चालू हुआ जिसके कारण पात्रनिमित्तक उपकरणों की वृद्धि हुई । परिणाम स्वरूप स्थविरों के कुल १४ उपकरणों की संख्या हुई जो इस प्रकार है: १. पात्र, २. पात्रबन्ध, ३. पात्रस्थापन, ४. पात्रप्रमार्जनिका, ५. पटल, ६. रजस्त्राण, ७. गुच्छक, ८-९. दो सौत्र वस्त्र (चादरें ) १०. ऊनी वस्त्र (कम्बल), ११. रजोहरण, १२. मुखवस्त्रिका, १३ मात्रक और १४. चोलपट्टक । यह उपधि 'औधिक' अर्थात् सामान्य मानी गयी और आगे जाकर इसमें जो कुछ उपकरण बढ़ाये गये वे ' औपग्रहिक' कहलाये । औपग्रहिक उपधि में संस्तारक, उत्तरपट्टक, दंडासन और दंडक ये खास उल्लेखनीय हैं । ये सब उपकरण आजकल के श्वेताम्बर जैन मुनि रखते हैं । दिगम्बराचार्यों का स्थविरकल्प आचार्य देवसेन अपने 'भावसंग्रह' नामक ग्रन्थ में लिखते है- "जिन ने साधुओं के लिये स्थविरकल्प भी कहा है । वह इस प्रकार है Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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