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जिनकल्प और स्थविरकल्प
२९३ श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार 'जिनकल्पिकों' के मूल दो और उत्तर आठ भेद होते थे ।
दिगम्बर जैनाचार्य देवसेन कृत 'भावसंग्रह' में जिनकल्पिकों का वर्णन नीचे मुजब उपलब्ध होता है
__ "तीर्थंकरो ने 'कल्प' दो प्रकार का कहा है-'जिनकल्प' और 'स्थविरकल्प' । जिनकल्प उत्तम संहननधारी के लिये कहा है । जिनकल्प में रहे हुए मुनि पैर में लगा कांटा या नेत्र में गिरि रज को स्वयं नहीं निकालते, दूसरों के निकालने पर वे मौन रहते हैं । जलवृष्टि आदि के कारण विहार मार्ग रुक जाने पर वे छ: मास तक निराहार कायोत्सर्ग-ध्यान में रहते हैं । वे एकादशाङ्ग सूत्रों के धारक, धर्म और शुक्ल ध्यान को ध्यानेवाले, संपूर्ण कषायत्यागी, मौनव्रती और गुहावासी होते हैं । बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रह रहित निःस्नेह नि:स्पृह होकर जिनकी तरह विचरते हैं, अतएव वे जिनकल्पस्थित श्रमण कहलाते हैं ।"
अब हम इन्हीं जिनकल्पों का वर्णन दिगम्बर विद्वान् वामदेव के 'भावसंग्रह' के आधार पर लिखेंगे ।
__ 'अब जिनकल्प नामक वृत्तान्त कहते हैं जिससे कि भव्य आत्माओं को मुक्ति का सङ्गम प्राप्त होता है। जिनकल्पिक शुद्ध सम्यक्त्व युक्त, इंद्रिय और कषायों को जीतनेवाले, एकादशाङ्ग श्रुत को एक अक्षर की तरह जाननेवाले होते हैं । पैर में लगा कांटा और आँखों में गिरी हुई रज को वे स्वयं नहीं दूर करते, दूसरों के दूर करने पर वे मौन रहते हैं । वे प्रथम संहनन(वज्रऋषभनाराच)वाले और निरन्तर मौनी होते हैं । पर्वत की गुफाओं में, जङ्गलों में अथवा नदी के तट पर रहते हैं । वर्षाकाल में मार्ग जीवाकुल होने पर छ: मास तक नि:स्पृह और निराहार कायोत्सर्गध्यान में खड़े हैं । मोक्षसाधन में एकनिष्ठावाले, रत्नत्रय से शोभित, नि:संग और निरन्तर धर्म और शुक्ल ध्यान में लीन रहते हैं । ये मुनि 'जिन' की तरह अनियतवासी होकर विचरते हैं, इसी कारण से आचार्यों ने इनको ‘जिनकल्प' इस नाम से कहा है।
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