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________________ षष्ठ परिच्छेद जिनकल्प और स्थविरकल्प भगवान् महावीर के श्रमणगण में आचार-मार्ग दो थे-एक स्थविरकल्प और दूसरा जिनकल्प । सभी मनुष्य पहले 'स्थविरकल्प' में दीक्षित होते थे । पर विशिष्ट संहनन और श्रुतसंपत्ति पाने के उपरान्त उनमें से जो श्रमण अधिक उग्र चर्या धारण करना चाहते वे 'स्थविरकल्प' से निकल कर 'जिनकल्प' का स्वीकार करते थे और तब से वे "जिनकल्पिक' कहलाते थे । श्वेताम्बर जैनों के नियुक्ति और भाष्यादि आगम ग्रन्थों में जिनकल्पिक की व्याख्या करते हुए उसकी योग्यता के विषय में लिखा गया है कि जो वज्रऋषभनाराचसंहननवाला और साढ़े नवपूर्व के ऊपर तथा दशपूर्व के भीतर श्रुत पढ़ा हुआ हो वही जिनकल्प ग्रहण कर सकता है । जिनकल्पिक नग्न, निष्प्रतिकर्म और विविध अभिग्रहधारी होने के नाते एक होते हुए भी, 'पाणिपात्र' (हाथ में भोजन करनेवाले) और 'पात्रधारी' के भेद से दो प्रकार के होते हैं। (१) पाणिपात्र भी उपधिभेद से चार प्रकार के होते थे । कोई रजोहरण और मुखवस्त्रिका ये दो उपकरण रखते, कोई उक्त दो के अतिरिक्त एक, कोई दो और कोई तीन कल्प (चादरें) रखते थे । (२) पात्रधारी भी उक्त दो, तीन, चार और पाँच उपकरणों के अतिरिक्त सात प्रकार के पात्र निर्योग के रखने से क्रमशः नौ, दस, ग्यारह और बारह प्रकार की उपधि के कारण चार प्रकार के होते थे। इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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