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आजीवकमत-दिग्दर्शन
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'मस्कर' कहलाता था और जिसके धारण करने से गोशालक 'मस्करी' कहलाता था ।
जहाँ तक हम समझते हैं 'मक्खलिपुत्र' गोशालक के सम्बन्ध में डा० महोदय की यह कल्पना प्रामाणिक नहीं । गोशालक या उसके समय के आजीवक भिक्षु वंश - दण्ड रखते थे, यह बात किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होती ।
उस समय में जो एकदण्डी संन्यासियों का सम्प्रदाय था उसका आजीवकों से कोई वास्ता नहीं था, यह बात सूत्रकृताङ्ग की टीका में वर्णित आर्द्रक मुनि के वृत्तान्त और दूसरे अनेक वर्णनों से सिद्ध है । गोशालक 'मस्करी' श्रमण कहलाता था यह सत्य, पर उसका कारण 'मस्कर' नहीं, उसके बाप का अथवा जाति का नाम 'मंखलि' था ।
जहाँ तक हमारा अनुमान है, गोशालक के स्वर्गवास के बाद जैनों की तरह आजीवकों में भी दण्ड रखने की प्रथा चली थी और वह दण्ड भी मुख्यतया वंश का ही होता था ।
पिछले समय के विद्वानों को आजीवक 'मस्करी' क्यों कहलाते हैं इसका वास्तविक ज्ञान न होने से वे वंश को ही 'मस्कर' मानकर मस्करयोगात् मस्करी' इस प्रकार की व्याख्या करने लगे । यही कारण है कि भाष्यकार पतञ्जलि जैसे प्रौढ़ विद्वान् ने इस व्याख्या पर अरुचि प्रदर्शित की है ।
कापिल, योगी, बौद्ध आदि अनेक अवैदिक सम्प्रदायों की ही तरह आजीवक सम्प्रदाय भी सैकड़ों वर्षों से वैदिक धर्म की बृहत्कुक्षि में समाया हुआ है तथापि इसके बहु व्यापक संस्कार भारतवर्ष से कभी मिटनेवाले नहीं ।
दाक्षिणात्य वैष्णव सम्प्रदायों का जो दया के सिद्धान्त की तरफ अधिक झुकाव है उसका भी कुछ श्रेय आजीवक सम्प्रदाय के हिस्से जायगा और इन सबसे अधिक व्यापक 'यद्भाव्यं तद्भविष्यति' वाला सिद्धान्त आज भी कितने ही भारतवासियों के हृदय पर जमा हुआ है, जो आजीवकों की ही अमर देन है ।
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