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श्रमण भगवान् महावीर ही रह गया । धनञ्जय दिगम्बर जैनों के आजीवक नाम से प्रसिद्ध होने की जो बात कहता है उसका कारण भी इससे समझ में आ जाता है क्योंकि उस समय से बहुत पहले ही वास्तविक आजीवकों का अस्तित्व मिट चुका था और नग्न भिक्षुओं के लिये सुप्रसिद्ध 'आजीविक' नाम का प्रयोग नग्न भिक्षुओं के नाते दिगम्बर जैन साधुओं के लिये रूढ़ हो गया था । राजा राज के लेखों में दिगम्बर जैनों के लिये जो 'आजीवक' शब्द प्रयुक्त हुआ है उसका यही कारण है। ६ उपसंहार
__ आजीवक मत सम्बन्धी मुख्य बातों का यथोपलब्ध वर्णन ऊपर कर दिया । गोशालक के जीवन वृत्तान्त और 'मंखलिपुत्र' नाम के सम्बन्ध में ऊपर ऊहापोह नहीं किया, क्योंकि जीवनवृत्तान्त चरित खंड में 'गोशालक' नामक परिच्छेद में आ गया है और 'मंखलिपुत्र' नामकी चर्चा कुछ महत्त्व नहीं रखती । इस विषय में हमारे विचार डा० हानले के विचारों से भिन्न हैं ।
__ जैन सूत्रों में गोशालक की जाति और आजीवका के सम्बन्ध में जो लिखा है उसे हम यथार्थ मानते हैं। प्राचीन जैन सूत्रों में जहाँ जहाँ तमाशगीरों की नामावली आती है वहाँ सर्वत्र 'मंख' नाम भी आया करता है । इस वास्ते 'मंख' शब्द का टीकाकारों ने जो अर्थ किया है उसमें शंका करने का कोई कारण नहीं दीखाता । गोशालक का जितना परिचय जैनों को था उतना बौद्धों को नहीं । इस वास्ते बौद्धों का यह कथन कि 'मंखलि' यह गोशालक का नाम था, कुछ भी प्रमाण नहीं रखता । 'मंखलि' यह गोशालक के बाप या जाति का नाम था । इसीलिये उसके नाम के साथ सर्वत्र 'मंखलिपुत्र' यह विशेषण बोला जाता था । बौद्धों ने इस विशेषण के एक देश 'मंखलि' का गोशालक के लिये ही प्रयोग कर डाला और पिछले लेखकों ने उसका संस्कृत रूप 'मस्करिन्' बनाकर उसे 'परिव्राजक' शब्द का पर्याय बना लिया । डा० हार्नले का अभिप्राय है कि 'मंखल' जैसा कोई शब्द नहीं जिससे 'मंखलि' शब्द सिद्ध हो । इसलिये 'मस्करिन्' का प्राकृत रूप 'मंखलि' अथवा 'मक्खलि' मानकर उसे गोशालक का नाम मानना ही ठीक है, क्योंकि गोशालक और उसके अनुयायी एक दण्ड रखते थे जो संस्कृत भाषा में
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