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आजीवकमत-दिग्दर्शन
२८९ किसी तरह की सफेद धूल (रजस्) लगाना शुरू कर दिया हो और इससे वे पांडुरंग (भूरे रंगवाले) या 'पांडुराङ्ग' (धूसर शरीरवाले) कहलाने लगे हों । कछ भी हो, पर यह तो निश्चित है कि इन नामों के साथ ही आजीवक नये धर्म-संप्रदायों के निकट पहुँच चुके थे और इसका परिणाम वही हुआ जो होना चाहिये था । विक्रम की आठवीं सदी में पहुँच कर आजीवक अपना अस्तित्व खो बैठे । वे हमेशा के लिये शैव और वैष्णव संप्रदायों में मिल कर उन्हीं नामों से प्रसिद्ध हो गये । आचार्य शीलाङ्क इनको शैव और भट्टोत्पल नारायणभक्त बताते हैं उसका यही कारण है ।
दक्षिण भारत में तथा अन्यत्र आज तक निरंजनी आदि नग्न संन्यासियों की जमातें जो दृष्टिगोचर होती हैं, हमारे ख्याल से ये उसी नामशेष आजीवक संप्रदाय के अवशेष हैं ।
अब हम एक शंका का निराकरण कर के इस लेख को पूरा करेंगे ।
"विक्रम की आठवीं शताब्दी में ही आजीवक सम्प्रदाय नामशेष हो गया था' हमारे इस कथन पर प्रश्न हो सकता है कि यदि आठवीं शताब्दी में ही आजीवकों की समाप्ति हो गई होती तो विक्रम की तेरहवीं सदी के चौथे और चौदहवीं सदी के पहले चरण में चोलराजा राज के द्वारा पेरुमाल के मन्दिर की दीवारों पर खुदवाये गये संवत् १२९५-१२९६, १३०० और १३१६ के शिलालेखों में आजीवकों पर कर लगाने का उल्लेख कैसे होता ?
उत्तर यह है कि उक्त लेखों में आजीवकों पर कर लगाने का जो उल्लेख है, वह गोशालकशिष्य आजीवकों के लिये नहीं किन्तु आजीवकों के सादृश्य से पिछले समय में 'आजीवक' नामप्राप्त 'दिगम्बर जैनों के लिये है।
दक्षिण भारत आजीवक और दिगम्बर जैन दोनों ही का मुख्य विहार क्षेत्र था । यही नहीं, दोनों ही सम्प्रदायवाले दिगम्बर और अवैदिक भिक्षु थे । इस कारण सर्वसाधारण में उन दोनों का भेद समझना सहज नहीं था । लोग आजीवकों को दिगम्बर समझ लेते थे और दिगम्बरों को आजीवक भी । परन्तु जब से खरे आजीवक आजीवक मिटकर पंडुरंगादि नामों से प्रसिद्ध हो वैष्णवादि सम्प्रदायों में मिल गये तबसे आजीवक नाम केवल दिगम्बर जैनों के लिये
श्रमण-१९
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