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श्रमण भगवान् महावीर बृहज्जातक के प्रव्रज्यायोग प्रकरण में वराहमिहिर ने जो सात भिक्ष वर्ग बताये हैं उनमें आजीवक भी शामिल हैं ।
विक्रम की सातवीं सदी की कृति निशीथचूर्णि में 'आजीवक' शब्द का परिचय देते हुए चूर्णिकार जिनदासगणि महत्तर लिखते हैं—'आजीवक गोशालक-शिष्य होते हैं जो पंडरभिक्षुक भी कहलाते हैं ।'
ओघनियुक्ति-भाष्यकार भी आजीवकों का पांडुरंग नाम से व्यवहार करते हैं जैसा कि पहले बताया जा चुका है।
अनुयोगद्वार चूर्णि में 'पंडरंग' शब्द का पर्याय बताते हुए चूर्णिकार कहते हैं- "पंडरंगा सा (सस) रक्खा" अर्थात् 'पंडरंग' का अर्थ 'सरजस्क' भिक्षु है ।
दसवीं सदी के प्रसिद्ध जैन टीकाकार आचार्य शीलांक ने एकदण्डियों को शिवभक्त बताया है ।
ग्यारहवीं शताब्दी के टीकाकार भट्टोत्पल ने बृहज्जातक की टीका में 'आजीवकों' का अर्थ 'एकदण्डी' किया है और उन्हें 'नारायण' का भक्त लिखा है ।
उपर्युक्त प्रमाणों और नामोल्लेखों से जो निष्कर्ष निकलता है उसका सार यह है कि बृहज्जातक के उल्लेख से पाया जाता है कि वराहमिहिर के समय अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध तक आजीवक विद्यमान थे और वे 'आजीवक' नाम से ही पहचाने जाते थे ।
निशीथचूर्णि और ओघनियुक्ति के भाष्यकार के समय विक्रम की सातवीं शताब्दी में आजीवक 'गोशालक शिष्य' के नाम से प्रसिद्ध होने पर भी 'पाण्डुरभिक्षु' अथवा 'पाण्डुरंगभिक्षु' कहलाने लगे थे ।
अनुयोगद्वारचूणि में 'पंडुरंग' शब्द का पर्याय 'सरजस्क' लिखा है । इससे हमें उनका 'पाण्डुरंग' यह नाम प्रचलित होने का कारण भी समझ में आ जाता है । आजीवक भिक्षु नग्न रहते थे, इस कारण संभव है कि शीतनिवारणार्थ शैव संन्यासियों की तरह इन्होंने भी अपने शरीर पर भस्म या
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