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आजीवकमत-दिग्दर्शन
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दूसरा उल्लेख इसी महाराज अशोक के शासन स्तंभों में के सातवें स्तम्भ पर राज्य के २८ वें वर्ष में खुदे हुए लेख में आता है जो इस प्रकार है— 'मैंने योजना की है कि मेरे धर्म महामात्र बौद्ध संघ के, ब्राह्मणों के, आजीवकों के, निर्ग्रन्थों के और वास्तविक भिन्नतावाले कुछ पाषण्डों के कार्य में व्याप्त हो जायँगे ।'
तीसरा प्राचीन उल्लेख नागार्जुन की गुफा की दीवारों पर खुदे हुए अशोक के पुत्र दशरथ के लेख में आता है, जो इस प्रकार है—'यह गुफा महाराज दशरथ ने राजगद्दी पर आने के बाद तुरन्त आचन्द्रार्क निवास के लिये सम्मान्य आजीवकों को अर्पण की ।'
पहले जो आजीवकों के पास कालकाचार्य के निमित्त शास्त्र पढ़ने की बात कही गई है, उससे सिद्ध है कि विक्रम - पूर्व प्रथम शताब्दी में दक्षिण भारत मैं आजीवकों का खासा प्रचार था ।
आजीवकों का एक विचित्र वृत्तान्त सदजीरो सुगुइर (Sadajiro Suguira) 'हिन्दू लोजिक ऐज़ प्रीजर्व इन चाइना एण्ड जापान' नामक छोटे ग्रन्थ में आता है ।
उपोद्घात के पृष्ठ सोलह पर ग्रन्थकार कहता है—'चीनी और जापानी ग्रन्थकर्त्ता बार-बार इन महासम्प्रदायों में (अर्थात् सुप्रसिद्ध छ: भारतीय सम्प्रदायों में) दो विशेष सम्प्रदायों का समावेश करते हैं जो 'निकेन्दब्री' और 'अशिविक' के नाम से पहिचाने जाते हैं और एक दूसरे से बिलकुल मिलते-जुलते हैं । ये दोनों मानते हैं कि पापी जीवन का दण्ड जल्दी या देरी से चुकाना ही पड़ता है और इससे बचना अशक्य होने से जैसे भी हो यह जल्दी ही चुकाना अच्छा है, जिससे कि भावी जीवन आनन्द में निर्गमन हो सके। इस प्रकार इनके विचार तापसिक थे । उपवास, मौन, अचलासन और आकंठ अपने को दबाये रखना ये इनकी तपस्या के बोधक थे । सम्भवतः ये सम्प्रदाय जैन अथवा किसी अन्य हिन्दू सम्प्रदाय की प्रशाखायें थीं ।'
उक्त लेख में उल्लिखित 'निकेन्दब्री' और 'अशिविक' क्रमशः निर्ग्रन्थव्रती और आजीवक हैं, इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।
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