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आजीवकमत-दिग्दर्शन भी उनकी नग्नता मात्र प्रकट होती है, न कि दिगंबर जैनों से अभिन्नता ।
(७) हलायुध ने अभिधानरत्नमाला में दिगम्बर जैनों को आजीवक कह दिया, इससे भी वे अभिन्न सिद्ध नहीं किये जा सकते । कोषकार कुछ प्रामाणिक इतिहासकार नहीं होते कि वे जो कुछ लिखें प्रमाणसिद्ध ही लिखें । अपने समय में जिस शब्द का जो अर्थ किया जाता हो उसे उस अर्थ में लिख देना, इतना ही कोषकारों का कर्तव्य होता है । हलायुध के समय में दिगम्बर जैनों को जैनेतर लोग आजीवक नाम से भी पहचानते होंगे इस कारण कोषकार ने उन्हें आजीवक भी लिख दिया, पर इतने ही से वे आजीवक नहीं हो सकते ।
ऊपर हमने देखा कि डा० हार्नले के दिये हुए प्रमाणों में एक भी प्रमण ऐसा नहीं जो दिगम्बर जैनों को ही आजीवक अथवा त्रैराशिक सिद्ध कर सके । इसके अतिरिक्त दिगम्बरों को त्रैराशिक मानने में किसी प्रकार का दार्शनिक मान्यता विषयक सादृश्य भी नहीं है । यदि दिगम्बर जैन ही त्रैराशिक होते तो इनमें भी सत् असत् सदसत्, नित्य अनित्य नित्यानित्य इत्यादि त्रैराशिक संमत तीन राशि की और तीन नय की मान्यता होती, पर ऐसा कुछ भी नहीं है।
श्वेताम्बर जैनसंघ के अनेक नये पुराने ग्रन्थों में दिगम्बर सम्प्रदाय का उल्लेख और वर्णन है, पर कहीं भी इनको श्वेताम्बरों ने 'आजीवक' अथवा 'त्रैराशिक' नहीं कहा । भाष्यों और चूणियों में सर्वत्र इनको 'बोडिय' (बोटिक) इस नाम से व्यवहृत किया है। दसवीं सदी के बाद के ग्रन्थों में आशाम्बर, दिगम्बर, दिक्पट इत्यादि नामों का इनके लिये प्रयोग हुआ है । कहीं भी आजीवक अथवा त्रैराशिक ये शब्द दिगम्बर जैनों के लिये प्रयुक्त नहीं हुए । यदि वे एक होते तो सबसे पहले श्वेताम्बर जैन ही उनको गोशालक शिष्य कहकर तिरस्कृत करते, क्योंकि उनके सबसे अधिक निकटवर्ती वे ही थे । पर वैसा कहीं भी उल्लेख नहीं किया । इसके विपरीत श्वेताम्बर ग्रन्थकारों ने दिगम्बर और आजीवकों का भिन्न-भिन्न उल्लेख किया है। उदाहरण के तौर पर हम यहाँ ओघनियुक्ति-भाष्य की एक गाथा का अवतरण देंगे जिसमें आजीवक और दिगम्बरों का अलग-अलग उल्लेख है ।
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