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श्रमण भगवान् महावीर प्रमाण नहीं है।
(२) पूर्वश्रुत में उल्लेख होने से ही आजीवक और त्रैराशिकों को निर्ग्रन्थ संघ के वर्तुल के भीतर मान लेना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि पूर्वश्रुत दृष्टिवाद का एक भाग होने से उसमें अन्य दार्शनिकों के मत का उल्लेख होना कोई नयी बात नहीं है । दृष्टिवाद में प्रत्येक दर्शन की आलोचना प्रत्यालोचना होना स्वाभाविक है । आजीवक और त्रैराशिकों के सिद्धान्त अधिकांश में जैन सिद्धान्तों से मिलते जुलते थे इस वास्ते सूत्र विभाग में इनके मतानुसारी सूत्रों का होना कुछ अस्वाभाविक या आश्चर्यजनक नहीं है और इस कारण से ही इनको निर्ग्रन्थ संघ में मान लेना ठीक नहीं ।
(३) आजीवक और दिगम्बर दोनों नग्न होने से भी एक नहीं हो सकते । आजीवकों की ही तरह पूरणकश्यप और उसके अनुयायी भी नग्न रहते थे, तो क्या नग्नता के नाते इनको भी उन दोनों से अभिन्न मान लिया जायगा ? कभी नहीं । वर्तमान समय में निरंजनी आदि अनेक वैष्णव साधुओं की जमातें नग्न रहती हैं फिर भी यह कभी नहीं कह सकते कि दिगम्बर जैन साधु इनसे अभिन्न हैं ।
(४) दिगम्बर जैनों के एक दण्ड रखने के विधान की बात भी हम सत्य नहीं मान सकते । जहाँ तक हमें ज्ञात है दिगम्बर जैन साधु किसी भी तरह का दण्ड नहीं रखते और न ऐसा करने का उनके शास्त्रो में विधान ही है।
(५) तामिल भाषा में आजीवक शब्द का अर्थ 'दिगम्बर' करने से भी आजीवक और दिगम्बर जैन एक नहीं हो सकते, क्योंकि उस प्रदेश में आजीवकों का अधिक प्रचार था और वे निरन्तर नग्न ही रहते थे इस कारण वे वहाँ दिगम्बर भी कहलाते होंगे । परन्तु इस शब्दार्थ मात्र से दिगम्बर जैन और आजीवक अभिन्न सिद्ध नहीं हो सकते । नग्न रहने से हर कोई दिगम्बर कहा जा सकता है पर इससे वह दिगम्बर जैन ही है यह मान लेना युक्तिसंगत नहीं।
(६) शीलांकाचार्य ने आजीवक का पर्याय दिगम्बर किया तो इससे
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