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श्रमण भगवान् महावीर ठीक मानी जाय तो यह अनुमान कर लेना अनुचित नहीं होगा कि आजीवक द्रव्यार्थिक नयों को माननेवाले थे । उनकी कतिपय दूसरी बातों से भी इस अनुमान का समर्थन होता है ।
इसके विपरीत श्रमण भगवान् महावीर पर्यायार्थिक नयों के अधिक आग्रही थे, यह बात जमालि के विरोध के कारण को विचारने से स्वयं समझ में आ सकती है । महावीर के 'करेमाणे कडे' के विरुद्ध जमालि ने 'कडे कडे' यह प्ररूपणा की थी । वस्तुतः दोनों कथनों में भिन्न-भिन्न नयों की अपेक्षा थी । महावीर की दृष्टि 'ऋजुसूत्र' नामक पर्यायार्थिक नय पर थी और जमालि की "व्यवहार' नामक द्रव्याथिक नय पर ।
महावीर ने जमालि को एक मात्र इसी दृष्टि-भेद के कारम निर्ग्रन्थ प्रवचन का प्रत्यनीक मान कर संघ से बहिष्कृत कर दिया था । इससे यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है कि महावीर को पदार्थ प्ररूपण में अशुद्ध नयों का आसरा लेना पसंद नहीं था अर्थात् प्रमेय का जिज्ञासित स्वरूप जुदाकर न समझानेवाले नयों से पदार्थ निरूपण करना महावीर पसंद नहीं करते थे । इससे सिद्ध है कि उनका झुकाव ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत इन चार नयों की तरफ अधिक था । यही कारण है कि नन्दीसूत्रकार ने छिन्नाच्छेदनयिक सूत्रों को स्वसमयपरिपाट्यनुसारी कहा है और अच्छिनच्छेदनायिक सूत्रों को आजीवकसूत्र परिपाट्यनुसारी ।
सूत्रकृताङ्ग की टीका में त्रैराशिकों की मान्यताओं के वर्णन में लिखा है कि 'वे आत्मा की तीन अवस्था मानते हैं—समला, शुद्धा और अकर्मा ।'
जिस तरह मलिन जल उबालने से शुद्ध होता है और उसमें के रजकण नीचे बैठ जाने पर वह बिलकुल निर्मल हो जाता है, इसी तरह कर्ममल से लिप्त आत्मा तप-संयम से शुद्ध होती है और सर्वकर्मांशों से मुक्त होने पर अकर्मा । पर जैसे निर्मल हुआ जल भी वायु आदि से रजकण गिरने से पुनः समल हो जाता है, उसी प्रकार अकर्मक आत्मा भी अपने तीर्थ की उन्नति अवनति को देख रागद्वेषवश हो फिर समल हो जाती है और अपने तीर्थ की उन्नति करती है ।
उपर्युक्त सिद्धान्त गोशालक-शिष्य त्रैराशिकों का होना लिखा है, पर
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