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________________ आजीवकमत-दिग्दर्शन २८१ सत्र की परिपाटी का अनुसरण करते हैं और ये ही बाईस सूत्र चतुष्कनयिक हैं जो जैन-प्रवचन का अनुगमन करते हैं । इस प्रकार सब मिलकर अठासी सूत्र होते हैं। उपर्युक्त वर्णन में त्रैराशिक और आजीवकों का उल्लेख है और वह भी यों ही नहीं पर उनके मतानुसारी बाईस बाईस सूत्रों की सूचना के साथ । टीकाकारों के कथनानुसार ये त्रैराशिक भी गोशालक के ही शिष्य थे और सत् असत् सदसत्, नित्य अनित्य नित्यानित्य इत्यादि सर्वत्र तीन राशियों की मान्यता के कारण वे त्रैराशिक कहलाते थे । सूत्रकृताङ्ग की टीका में आचार्य शीलांकसूरि ने भी त्रैराशिकों को गोशालक के शिष्य लिखा है । परन्तु त्रैराशिक गोशालक के शिष्य थे, इस कथन में प्रमाण क्या है सो हम नहीं कह सकते । इसके विपरीत त्रैराशिक जैन संघ में से निकले थे ऐसा प्रमाण जैनागम कल्पसूत्र में मिलता है । आर्यमहागिरि के प्रशिष्य रोहगुप्त के वर्णन में सूत्रकार लिखते हैं-"एत्थ तेरासिया निग्गया" अर्थात् यहाँ से त्रैराशिक निकले । आर्यमहागिरि आर्यस्थूलभद्र के बड़े शिष्य थे और जिनकल्पिकों का अनुकरण करते हुए वे अचेलक होकर विचरते थे । उनका अनुसरण करनेवाले उनके कतिपय शिष्य भी वैसा ही करते थे। आश्चर्य नहीं, त्रैराशिक मत का प्रवर्तक रोहगुप्त भी उसी कोटि का हो और उसे आजीवकों की तरह नग्न रहते देख उसके विरोधियों ने 'गोशालक शिष्य' इस नाम से प्रसिद्ध कर दिया हो । अथवा यह भी हो सकता है कि श्रमणसंघ से बहिष्कृत होने के बाद रोहगुप्त स्वयं ही आजीवकों के संघ में मिल गया हो । कुछ भी हो, जहाँ तक हमारा ख्याल है, त्रैराशिकों की उत्पत्ति जैनसंघ से मानना अधिक युक्तिसंगत है । उक्त नन्दीसूत्र के वर्णन में बाईस 'अछिनच्छेदनयिक' सुत्र आजीवकों की सूत्र-परिपाटी का अनुसरण करनेवाले कहे हैं । यद्यपि 'अछित्रच्छेदनय' का अर्थ टीकाकारों ने स्पष्ट नहीं लिखा, परन्तु जहाँ तक हम समझते हैं इसका तात्पर्य अशुद्ध नैगम, संग्रह और व्यवहार नय से है। यदि हमारी यह कल्पना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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