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श्रमण भगवान् महावीर मज्झिमनिकाय और संयुक्तनिकाय में भिक्खु पकुधकच्चायन की और तिब्बती दल्व में अजितकेशकंबल की होने का उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि केवल आजीवकों के ही नहीं दूसरे भी तत्कालीन-दार्शनिकों के सैद्धान्तिक विचार इसी प्रकार के होंगे ।
इस योजना में उल्लिखित मनुष्यों की षड् अभिजातियों का स्वरूप निर्ग्रन्थ प्रवचन में दिये हुए छ: लेश्याओं के स्वरूप से मिलता जुलता है
और पाँच इन्द्रियों के द्वारा किया गया प्राणियों का पाँच में विभाग भी जैन प्रवचन की शैली से मिलता है । इसके अतिरिक्त 'सव्वे जीवा सव्वे सत्ता' इत्यादि शब्द रचना भी निर्ग्रन्थ प्रवचन से अक्षरशः मिलती है ।
आजीवक आत्मवादी, पुनर्जन्मवादी और निर्वाणवादी होते थे, यह तो इनके सिद्धान्तों से ही निश्चित है; पर उनके मत में आत्मा का स्वरूप क्या था, यह जानना कठिन है ।
बौद्ध मज्झिमनिकाय में लिखा है कि बुद्ध के विरुद्ध छहों भिक्षुनेता समान रीति से यह प्रतिपादन करते थे कि 'प्रबुद्ध आत्मा' निर्वाण के बाद अपना अस्तित्व जारी रखती है, तथापि इस अस्तित्व के खास प्रकार पर इनमें मतभेद था । गोशालक का मत था कि आत्मा 'रूपी' है और महावीर की मान्यता थी कि यह 'अरूपी' है।
जैनसूत्र सूत्रकृताङ्ग में तीन सौ त्रेसठ प्रवादियों के क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी-ये चार विभाग किये हैं । इनमें से दूसरे अक्रियावादियों के मूल आठ भेद स्थानाङ्गसूत्र में माने हैं जिनमें सातवाँ भेद नियतिवादियों का है ।
जैन नन्दीसत्र में दृष्टिवादांग के वर्णन में ग्यारह परिकर्मों का निरूपण करके लिखा है कि चार परिकर्म चतुष्कनय संबंधी है और सात त्रिराशिक संबंधी । सूत्रगत के निरूपण में बाईस सूत्रों के नाम निर्देश करके लिखा है कि ये बाईस सूत्र छिनच्छेदनयिक हैं, जो जैन दर्शन के क्रम का अनुसरण करते हैं । ये ही बाईस सूत्र अच्छिन्नच्छेदनयिक हैं जो आजीक्क सूत्र की परिपाटी का अनुसरण करते हैं । ये ही बाईस सूत्र त्रिकनयिक हैं जो त्रैराशिक
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