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आजीवकमत-दिग्दर्शन
२७७ निर्ग्रन्थ स्थविरों से पूछते हैं कि सामायिकव्रत में स्थित श्रमणोपासक की किसी चीज़ की चोरी हो जाय तो व्रत पूर्ण होने के बाद वह उसकी तलाश करे या नहीं ? यदि करे, तो वह अपनी चीज़ की तलाश करता है यह कहा जायगा या दूसरे की चीज़ की? और सामायिकस्थित श्रमणोपासक की भार्या से कोई पुरुष गमन करे तो वहाँ क्या कहना चाहिये, श्रमणोपासक की भार्या से गमन या और कुछ ?' इत्यादि ।
ऊपर के दोनों प्रश्न आजीवकों के थे जिनका गौतम ने भगवान् महावीर से पूछकर खुलासा किया था ।
उपर्युक्त उल्लेखों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि निर्ग्रन्थों और आजीवकों के आचार भिन्न-भिन्न थे । यही नहीं, कभी कभी वे एक दूसरे के साम्प्रदायिक आचारों पर कटाक्ष तक किया करते थे । ४. धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्त
आजीवक मत के धार्मिक और दार्शनिक सिद्धान्तों के विषय में भी थोड़ी बहुत जानकारी जैन और बौद्ध सूत्रों से ही मिलती है । गोशालक ने अपने मुख से स्वमत के जो धार्मिक सिद्धान्त भगवान् महावीर के सामने प्रकट किये थे, उनका सविस्तर वर्णन भगवतीसूत्र के पंद्रहवें शतक में है, जो 'गोशालक' वाले प्रकरण में दिया गया है ।
इसके अतिरिक्त आजीवकों के नियतिवाद का भी अनेक स्थलों में उल्लेख आता है।
उपासकदशांग के छठे अध्ययन में एक देव और श्रमणोपासक कुण्डकौलिक के संवाद में नियतिवाद की चर्चा है। पौषध व्रत में बैठे हुए श्रमणोपासक कुंडकौलिक की नाम-मुद्रिका और उत्तरीयवस्त्र उठा कर आकाशस्थित देव कहता है--'हे कुण्डकौलिक श्रमणोपासक ! गोशालक मखलिपुत्र की धर्मप्रज्ञप्ति बड़ी सुन्दर है । उसमें न उत्थान है, न कर्म है, न बल है, न वीर्य है और न पुरुषपराक्रम क्योंकि उसके मत में सर्वभाव
१. देखिए पृष्ठ १२७-१३४ ।
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