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श्रमण भगवान् महावीर उपनियमों से अपने को प्रतिज्ञाबद्ध करते थे उतने आजीवकोपासक नहीं । उनमें जो जो धार्मिक वृत्तिवाले होते, वे निम्नलिखित व्रत स्वीकार करते थे
१. मातापिता की सेवा ।
२. पंचफल प्रत्याख्यान अर्थात् गूलर, बड़, बेर, सतर और पीपल के फलों का त्याग ।
३. प्याज, लहसुन और कंद-मूल का त्याग । ४. अलाञ्छित और बिना नाथे हुए बैलों से जीविका चलाना । ५. त्रस (चलते फिरते) जीवों को बचाकर जीवन निर्वाह करना ।
भगवतीसूत्र के आठवें शतक के पाँचवें उद्देशक में भगवान् महावीर कहते हैं कि ये बारह आजीवकोपासक हैं-ताल, तालपलंब, उब्विह, संविह, अवविह, उदय, नामुदय, णमुदय, अणुवालय, संखवालय, अयंपुल, और कायरय । ये अरिहंत को देवता माननेवाले, मातापिता की सेवा करनेवाले, गूलर, बड़, बेर, सतर और प्लक्ष (पीपल) इन पाँच फलों के त्यागी, प्याज लहसुन और कंद मूल को नहीं खानेवाले, अनिर्लाञ्छित और अनाथित बैलों से और त्रस प्राणों को बचाकर आजीवका चलाते हैं । जब आजीवकोपासक भी इस प्रकार निरवद्य जीवन गुजारते हैं तो श्रमणोपासकों का तो कहना ही क्या ? उन्हें तो इन पन्द्रह ही कर्मादानों को न स्वयं करना चाहिये, न कराना चाहिये, न करते हुए का अनुमोदन करना चाहिये ।
इसी सूत्र में अन्यत्र श्रमणोपासकों के व्रत विषयक विविध विकल्पों का वर्णन करके भगवान् महावीर कहते हैं कि इस प्रकार विविध विकल्पों से व्रत पालनेवाले श्रमणोपासक होते हैं, आजीवकोपासक ऐसे नहीं होते ।
जैन श्रमणोपासकों के सामायिक और पौषध व्रत का आजीवक किस प्रकार मखौल उड़ाते थे इसका पता भगवतीसूत्र के आठवें शतक के पाँचवें उद्देशक में वर्णित आजीवकों के प्रश्नों से लगेगा ।
एक समय भगवान् महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे हुए थे । तब इन्द्रभूति गौतम ने आकर उनसे कहा—'भगवन् ! आजीवक लोग
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