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आजीवकमत-दिग्दर्शन करते हैं।'
इसी प्रकार का आजीवकों का आचार-वर्णन दीर्घनिकाय में भी किया गया है, पर वहाँ पर यह वर्णन कश्यप के मुख से कराया गया है ।
उत्तराध्ययनसूत्र के उपोद्घात में प्रो० जाकोबी ने आजीवक और निर्ग्रन्थों के आचारों की एकता बताई है, पर वास्तव में इन दोनों सम्प्रदायवालों के आचारों में बहुत बड़ा अन्तर था । यद्यपि मज्झिमनिकाय में आजीवकों के कठिनतम तप और भिक्षा के नियमों का वर्णन है तथापि सब आजीवक भिक्षुओं द्वारा सदाकाल ये ही नियम पालन किये जाते थे, यह मान लेना भूल होगी । संभव है, आजीवक भिक्षुओं में से अमुक भाग अवस्था विशेष में अमुक समय तक के लिये इन कड़े नियमों का अनुसरण करता हो, पर इतने ही सादृश्य से इनका आचार निर्ग्रन्थों के आचार के तुल्य मान लेना ठीक नहीं ।
निर्ग्रन्थों और आजीवकों में मुख्य आचार-भेद सचित्त-अचित्त संबंधी था । निर्ग्रन्थ कुछ भी सचित्त वस्तु का ग्रहण और भक्षण तो क्या स्पर्श तक नहीं करते थे, पर आजीवकों के लिये यह बात नहीं थी । वे सचित्त (हरी, अखंडित वनस्पति, वनस्पति के बीज अर्थात् अनाज वगैरह) और आकरोत्पन्न शीतल जल का स्वीकार और सेवन कर लेते थे ।
इसके सिवाय दूसरी भी अनेक शिथिलतायें आजीवकों के आचार में थीं । बौद्ध विनयपिटक में अमुक आजीवकों के छाता ओढ़ कर चलने का उल्लेख मिलता है। इससे ज्ञात होता है कि आजीवक भिक्षुओं में जिस प्रकार उग्र तपस्यायें प्रचलित थीं उसी प्रकार हद दर्जे की शिथिलता भी । निर्ग्रन्थों की स्थिति इससे भिन्न थी । उनमें हद दर्जे की कष्टकर प्रतिज्ञायें थीं, पर शैथिल्य का प्रवेश तक नहीं था । उनमें जिनकल्पिक, स्थविर कल्पिक आदि निर्ग्रन्थों के भिन्न भिन्न दर्जे नियत थे और सब नियमित मर्यादाओं में चलते थे ।।
आजीवक भिक्षुओं के तो क्या, आजीवकोपासक गृहस्थों के आचार भी बहुत मामूली ढंग के होते थे । वृत्तिवान् जैन श्रमणोपासक जितने नियम
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