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श्रमण भगवान् महावीर महावीर ने भी इस नाग्न्य आचार को स्वीकृत किया होगा । हम डाक्टर महाशय की इस कल्पना का समर्थन नहीं कर सकते, क्योंकि महावीर के पास लगभग तेरह महीना ही वस्त्र रहा था । जिस समय वे दूसरा वर्षा चातुर्मास्य नालन्दा में ठहरे थे, उनके पास वस्त्र नहीं था, परन्तु गोशालक तबतक वस्त्रधारी था जो चातुर्मास्य के बाद महावीर का शिष्य होने के समय अचेलक बना था । इस दशा में महावीर ने नहीं किन्तु गोशालक ने ही महावीर का अनुकरण करके अपने वस्त्रों का त्याग किया था, यह निश्चित है।
आजीवकों के आचार का कुछ वर्णन बौद्ध मज्झिमनिकाय में उपलब्ध होता है। वहाँ छत्तीसवें प्रकरण में निर्ग्रन्थसंघ के साधु सच्चक के मुख से बुद्ध के समक्ष गोशालक मंखलिपुत्र तथा उसके मित्र नन्दवच्छ और किस्ससंकिच्च के अनुयायियों द्वारा पाले जानेवाले आचारों का वर्णन कराया है ।
__ आजीवकों के सम्बन्ध में सच्चक कहता है-"वे सब वस्त्रों का परित्याग करते हैं । सब शिष्टाचारों को दूर रखकर चलते हैं । अपने हाथों में भोजन करते हैं । भिक्षा के लिए आने अथवा राह देखने संबंधी किसी की बात नहीं सुनते । अपने लिये आहार नहीं बनवाने देते । जिस बर्तन में आहार पकाया गया हो उसमें से उसे ग्रहण नहीं करते । देहली के बीच रखा हुआ, ओखली में कूटा जाता और चूल्हे पर पकता हुआ आहार ग्रहण नहीं करते । एक साथ भोजन करते हुए युगल से तथा सगर्भा, दूधमुँहे बच्चेवाली और पुरुष के साथ संभोग करती हुई स्त्री से आहार नहीं लेते । जहाँ आहार कम हो, जहाँ कुत्ता खड़ा हो और जहाँ मक्खियाँ भिनभिनाती हों वहाँ से आहार नहीं लेते । मत्स्य, माँस, मदिरा, मैरेय और खट्टी कांजी को वे स्वीकार नहीं करते । उनमें से कुछ केवल एक घर भिक्षा माँगते हैं और एक मुट्ठी अन्न को ग्रहण करते हैं । अन्य सात घरों में भिक्षा माँगते हैं और सात मुट्ठी अन्न का स्वीकार करते हैं। कोई एक, कोई दो और कोई सात अन्नोपहार से निर्वाह करते हैं । कोई दिन में एक बार, कोई दो-दो दिन बाद एक बार, कोई सात-सात दिन बाद एक बार और कोई पन्द्रह पन्द्रह दिन बाद एक बार आहार करते हैं । इस प्रकार वे नाना प्रकार के उपवास
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