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________________ आजीवकमत-दिग्दर्शन २७३ इतना तो अवश्य ज्ञात होता है कि ये बड़े ही दुष्कर तप होंगे । इन्हीं तपों के अनुकूल जीवन व्यतीत करते हुए आजीवक भिक्षुओं का वर्णन जैन औपपातिकसूत्र में मिलता है, जो इस प्रकार है 'ग्राम, नगर, पुर, संनिवेशों में जो आजीवक होते हैं वे इस प्रकार के होते हैं---द्विगृहान्तरित, त्रिगृहान्तरित, सप्तगृहान्तरित (क्रमसे दो, तीन और सात घरों में भिक्षार्थ जानेवाले और न मिलने पर उपवास करनेवाले), उत्पलवृन्तिक (कमलों के बीटों का भोजन करनेवाले), गृहसामुदानिक (घरों के क्रम से भिक्षा लेनेवाले), विद्युदन्तरित (बीच में बिजली के चमकने पर भिक्षावृत्ति से निवृत्त होनेवाले) और उष्ट्रिका श्रमण (मिट्टी के बड़े बर्तन के भीतर बैठे रहनेवाले) । 'इस प्रकार की वृत्तिवाले आजीवक बहुत वर्षों तक श्रामण्य पाल कर अन्त में आयुष्य पूर्ण कर अच्युत-कल्प तक देवपद प्राप्त कर सकते हैं, फिर भी वे आराधक नहीं होते ।' ऊपर मुजब कष्टकारी व्रत रखते हुए भी आजीवक हरी वनस्पति, कच्चा अन्न और फल आदि का आहार कर लेते थे । इसी कारण महावीर ने एक बार इनके शास्त्र पर हमला करते हुए कहा था-"आजीवक-समय का तो अर्थ ही यह है कि सचित्त पदार्थों का भोजन करना-सब प्राणियों की हिंसा, छेदन भेदन और विनाश कर आहार करना ।" आजीवक भिक्षुओं का वेष केवल नग्नता के रूप में था । जिस समय गोशालक नालन्दा की तन्तुवायशाला में चातुर्मास्य रहा था, उस समय उसके पास वस्त्र थे पर चातुर्मास्य के बाद जब महावीर वहाँ से कोल्लाग संनिवेश की तरफ विहार कर गये तब वह भी नग्न हो उनकी खोज में निकल पड़ा और कोल्लाग में उनका शिष्य होकर महावीर के साथ विचरने लगा था । बौद्ध शास्त्रों में भी आजीवक भिक्षुओं को नग्न ही बताया है और इसी कारण उनके लिये वहाँ सर्वत्र 'अचेलक' शब्द का प्रयोग किया है । डा० हार्नले की कल्पना है कि गोशालक का अनुकरण करके श्रमण-१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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