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________________ २७२ श्रमण भगवान् महावीर छिपाने के लिये की थी, पर हमारी समझ में गोशालक इतना मूर्ख नहीं था कि अपने अपलाप के लिये वह ऐसी असम्भावित कल्पना करने का साहस करता अथवा ऐसा करने पर भी उसके अनुयायी उसे सत्य मान लेते । हम तो समझते हैं कि आजीवक मतवालों की मान्यता ही कुछ ऐसी होगी कि उदायी कुण्डियायन के पद पर आनेवाला पुरुष शरीरान्तर प्रविष्ट स्वयं उदायी कुण्डियायन ही होता है । इस मान्यतानुसार गोशालक मंखलिपुत्र भी उदायी कुण्डियायन का सातवाँ पदाचार्य होने से सप्तम शरीर-प्रविष्ट उदायी कुंडियायन मान लिया गया होगा और इसी बुत्ते पर उसने अपने लिये महावीर का शिष्य गोशालक नहीं, पर उदायी कुंडियायन होने की बात कही होगी । यदि हमारी उक्त कल्पना में कुछ यौक्तिकता मानी जा सकती है तो यह मानना अनुचित नहीं है कि आजीवक संघ का आदि प्रवर्तक उदायी कुंडियायन नाम का पुरुष था और गोशालक के स्वर्गवास समय तक उसको स्वर्गवासी हुए एक सौ तेंतीस वर्ष हो चुके थे । तबतक उसके पद पर ऐणेयक, मल्लराम, माल्यमंडित, रोह, भारद्वाज, गौतमपुत्र अर्जुन और गोशालक मंखलिपुत्र — ये सात पदधर हो चुके थे जिन्होंने क्रमशः २२, २१, २०, १९, १८, १७ और १६ वर्ष तक आचार्य पद भोगा था । ३. धार्मिक आचार आजीवकों के धार्मिक आचार कैसे थे, यह जानना सहज नहीं । इस समय उनका खुद का कोई ग्रन्थ या आचार-पद्धति विद्यमान नहीं है और जैन तथा बौद्ध सूत्रों में इनके आचारविषयक जो वर्णन मिलते हैं वे अतिसंक्षिप्त और अव्यवस्थित हैं । इस दशा में आजीवक मत के आचारमार्ग का निरूपण करना कोरी अटकलबाजी ही होगी । फिर भी जैन और बौद्ध साहित्य में इस मत के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा गया है, उसीके आधार पर हम इनकी आचारपद्धति का निरूपण करेंगे । जैन सूत्र स्थानाङ्ग में लिखा है- " आजीवकों के चार प्रकार के तप -उग्र तप, घोर तप, रसनिर्यूहना तप और जितेंद्रिय प्रतिलीनता तप ।" इन तपों का यथार्थ स्वरूप क्या था, वह कहना कठिन है । पर इनके नामों से Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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