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आजीवकमत-दिग्दर्शन प्रकार आजीवक संघ का नेतृत्व प्रमाणित नहीं हो सकता और बुद्ध को उस समय आजीवक भिक्षु के मिलने की बात कहते हैं, इससे यह बात निश्चित हो जाती है कि आजीवक संघ का संस्थापक मंखलि गोशालक नहीं पर उसका पूर्ववर्ती कोई अन्य पुरुष होना चाहिये ।
बौद्ध सूत्र दीर्घनिकाय और मज्झिमनिकाय में मंखलि गोशालक के अतिरिक्त किस्ससंकिच्च और नन्दवच्छ नामक दो और आजीवक नेताओं के उल्लेख मिलते हैं । हमारा अनुमान है कि ये दोनों गोशालक के पूर्ववर्ती आजीवक भिक्षु थे और उन्होंने आजीवक मत स्वीकार करने के बाद गोशालक को तेजोलेश्या लब्धिधारी और निमित्तशास्त्रवेदी जान कर अपने संघ का नायक बनाया था । यही कारण है कि गोशालक स्वयं संघाग्रणी होकर भी इनके साथ मित्र का सा व्यवहार करता था ।
इन सब वृत्तान्तों से यह बात तो लगभग निर्विवाद सिद्ध हो चुकी है कि आजीवक मत और संघ गोशालक के प्रादुर्भाव के पहले से चला आता था ।
आजीवक मत की स्थापना किसने की, इस विषय में यद्यपि कोई स्पष्ट उल्लेख या प्रमाण नहीं है तथापि भगवतीसूत्र में वर्णित गोशालक के शरीरान्तर प्रवेश के सिद्धान्त के ऊपर से हम कुछ अनुमान कर सकते हैं ।
महावीर के सामने अपने मत के अन्यान्य सिद्धान्तों का वर्णन करने के बाद गोशालक कहता है-"दिव्यसंयूथ और संनिगर्भ के भवक्रम से मैं सातवें भव में उदायी कुण्डियायन हुआ । बाल्यावस्था में ही प्रव्रज्या लेकर मैंने धर्माराधन किया और अन्त में उस शरीर को छोड़कर क्रम से ऐणेयक, मल्लराम, माल्यमण्डिक, रोह, भारद्वाज और गौतमपुत्र अर्जुन इन छ: मनुष्यों के शरीरों में प्रवेश किया और क्रमशः २२, २१, २०, १९, १८, १७ वर्ष तक उनमें रहा । अन्त में मैंने गौतमपुत्र अर्जुन का शरीर छोड़ कर गोशालक मंखलिपुत्र के शरीर में यह सातवाँ शरीरान्तर प्रवेश किया और इसमें कुल १६ वर्ष रहने के उपरान्त मैं निर्वाण प्राप्त करूँगा ।"
डा० हॉर्नले कहते हैं--गोशालक ने यह कल्पना अपनी जाति को
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