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यद्यपि दशार्ण से राजगृह और वैशाली-वाणिज्यग्राम की दूरी लगभग बराबर ही थी। बल्कि वैशाली से राजगृह १०-२० मील नजदीक पड़ता था, तथापि पिछला चातुर्मास्य राजगृह में हो चुका था और पुरिमताल, बनारस आदि क्षेत्रों में विचरे खासा समय भी हो गया था । इस कारण भगवान् काशी प्रदेश में हो कर विदेह भूमि में गये । 'ग' चरित्र ने दशार्णभद्र की दीक्षा के बाद भगवान् के जनपदविहार का और कालान्तर में राजगह जाने का लिखा है; परन्तु हमारा अनुमान है कि दशार्णभद्र की दीक्षा के बाद भगवान् लगभग ढाईतीन वर्ष तक काशी, कोशल, विदेह, पाञ्चाल आदि जनपदों में विचरे थे और के वलिपर्याय का १८वाँ १९वाँ और २०वाँ वर्षावास भी वैशालीवाणिज्यग्राम में ही किया था ।
(२१) लगभग तीन वर्ष तक मध्यप्रदेशों में विचरने के बाद भगवान् ने अपने मुख्य केन्द्र की तरफ प्रयाण किया । समय भी हो गया था और कई श्रमणों की इच्छा विपुलाचल पर अनशन करने की भी थी; परन्तु राजगृह से चम्पा की तरफ विहार आगे बढ़ जाने के कारण उस साल अनशन तो अधिक नहीं हुए होंगे परन्तु दीक्षायें अनेक हुई थीं ।।
(२२) कई मुनियों के कारण भगवान् ने इस वर्ष भी राजगृह के आसपास ही विहार किया । स्कन्धक कात्यायन ने इसी वर्ष में विपुलाचल पर अनशन किया था, जिस समय कि भगवान् राजगृह में थे, ऐसा भगवतीसूत्र में लेख है।
(२३) राजगृह-नालंदा का वर्षावास पूरा होने पर भगवान् ने फिर विदेह की तरफ विहार किया । केवलि-जीवन के तीसरे वर्ष वाणिज्यग्राम निवासी आनन्द गाथापति ने भगवान् के निकट श्राद्धधर्म का स्वीकार किया था, यह पहले कहा जा चुका है । आनन्द ने बीस वर्ष तक निज धर्म का आराधन करके अनशन किया था और अनशन के समय भगवान् वाणिज्यग्राम के दूतिपलास चैत्य में पधारे थे, ऐसा उपासकदशांग में लिखा है; अत: तेईसवें वर्ष भगवान् वाणिज्यगाँव में थे, यह निश्चित है । इसलिए उस वर्ष का वर्षावास भी वहाँ अथवा वैशाली में किया हो तो इसमें कोई शक नहीं ।
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