________________
२६८
श्रमण भगवान् महावीर आजीवक श्रमणों में भी इस निमित्त-विद्या के पठन-पाठन की परम्परा चालू थी और वे भी इस विद्या के बल से अपनी सुख-सामग्री जुटाया करते थे । इस विषय का एक उदाहरण यहाँ उपस्थित करते हैं ।
पञ्चकल्प-चूर्णिकार लिखते हैं कि 'आर्य कालक के दीक्षित शिष्य स्थिर नहीं रहते थे। उन्होंने सोचा कि निमित्त-शास्त्र पढ़ कर अच्छे मुहूर्त में दीक्षा दूँ ताकि दीक्षित स्थिर हों । उन्होंने आजीवकों के पास निमित्त का अध्ययन किया और राजा सातवाहन के सामने उसका प्रयोग किया जो सही निकला । राजा ने खुश हो एक लाख की कीमत का कड़ा और कुण्डल जोड़ी वगैरह कालक को भेंट में दिए, पर कालक ने यह कहते हुए कि 'यह मैंने निमित्त-शास्त्र का प्रयोग मात्र बताया है' उनको लेने से इन्कार कर दिया । इसी समय वहाँ आजीवक उपस्थित होकर बोले-'यह हमें गुरुदक्षिणा में मिलना चाहिये।
ऊपर के उल्लेख से स्पष्ट है कि 'निमित्त-विद्या' यह आजीवकों की एक परम्परागत विद्या थी और उसके द्वारा वे अपनी आजीवका सुलभ करते थे । यही कारण है कि जैन शास्त्रकारों ने इन्हें लिंगाजीव (साधु वेष से आजीवका प्राप्त करनेवाले) कहा है ।
इस प्रकार नियतिवादी बन कर भी विविध क्रियाओं के करने से और आजीवका के अर्थ निमित्त-विद्या का उपयोग करने से वे विरोधियोंखास कर जैन निर्ग्रन्थों द्वारा 'आजीवक' और इनका सम्प्रदाय 'आजीवकमत' के नाम से प्रसिद्ध किया गया ।
यद्यपि नियतिवादियों के लिये 'आजीवक' यह नाम सम्भवतः उनके विरोधियों ने प्रचलित किया था तथापि इससे वे नाराज नहीं थे । अनुमान कर सकते हैं कि उन्होंने खुद इस नाम को स्वीकार कर लिया था । यही कारण है कि शिलालेखों आदि में सर्वत्र उनका इसी 'आजीवक' नाम से उल्लेख किया गया है । २ प्रवर्तक और प्रवर्तनसमय
अब हम यह देखेंगे कि इस आजीवक मत को किसने किस समय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org