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आजीवकमत-दिग्दर्शन
२६७ जहाँ तक हम जान सके हैं इस मत के अनुयायी केवल आजीवका के ही अर्थी नहीं थे । वे विविध जात के तप और ध्यान भी करते थे । जैन-आगम स्थानाङ्ग में आजीवकों के चार प्रकार के तपों का निर्देश किया गया है।
कल्प-चूर्णिकार ने जिन पाँच प्रकार के श्रमणों का नामोल्लेख किया है उनमें आजीवक भी एक है ।
जैन सूत्र औपपातिक में विविध अभिग्रहधारक आजीवक श्रमणों का वर्णन मिलता है जिसमें एक प्रकार औष्ट्रिकाश्रमणों का है जो कि एक मिट्टी के बड़े बर्तन में ही बैठे हुए तप करते थे ।
इन सब उल्लेखों पर ध्यान देते हुए हम यह नहीं कह सकते कि आजीवक मतानुयायी केवल उदरार्थी होते थे और जीविका का साधन होने से ही उनका मत 'आजीवक मत' कहलाता था ।
सत्य बात तो यह है कि आत्मवादी, निर्वाणवादी और कष्टवादी होते हुए भी वे कट्टर नियतिवादी थे । उनके मत में पुरुषार्थ कुछ भी कार्यसाधक नहीं था और यह सब मानते हुए भी वे विविध तप और आतापनायें किया करते थे । इस 'वदतो व्याघात' जैसी अपनी प्रवृत्ति से ही वे अपने विरोधियों द्वारा इस आक्षेप के पात्र बने कि 'ये जो कुछ करते हैं, अपनी आजीवका के लिये करते हैं । अन्यथा नियतवादियों को इन प्रवृत्तियों से क्या प्रयोजन ?'
उक्त आक्षेप के गर्भ से ही नियतिवादियों के 'आजीवक' इस नाम का प्रादुर्भाव हुआ था, पर इसके अधिक प्रचलित और सर्वमान्य होने का एक और भी कारण था ।
जैन-आगम भगवतीसूत्र के लेखानुसार इस मत का आचार्य गोशालक पूर्वगत निमित्तशास्त्र का अभ्यासी था । यही नहीं, वह सब जीवों के लाभहानि, सुख-दु:ख, जीवित और मरणविषयक भविष्य बताने में सिद्धहस्त था और अपने प्रत्येक कार्य में इस ज्ञान की वह सहायता लेता था ।
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