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पञ्चम परिच्छेद आजीवकमत-दिग्दर्शन
प्रास्ताविक
गोशालक के सम्बन्ध में अनेक जगह यह कहा गया है कि वह भगवान् महावीर से जुदा होने के बाद आजीवक मत का आचार्य बनकर अपने को जिन-तीर्थंकर कहलाने लगा था, पर यह नहीं बताया गया कि आजीवक मत का प्रवर्तक कौन था, उसका स्वरूप क्या था और इसका इतिहास क्या है ? पाठकगण की जिज्ञासापूर्ति के लिये इन सब बातों का हम यहाँ दिग्दर्शन करायेंगे । १. नाम-निरुक्ति
'आजीवक' यह नाम 'आजीव' शब्द से तद्धित का 'इक' प्रत्यय लग कर बना है, जिसका अर्थ होता है-'आजीवका के लिये फिरने वाला ।' कहीं कहीं कोशकारों ने और मध्यकालीन जैन ग्रन्थकारों ने 'आजीवक' यह आजीवक का स्थानापन्न कृदन्त शब्द भी प्रयुक्त किया है, जिसका अर्थ 'आजीवका अर्थात् जीविका चलानेवाला' होता है। पर प्राचीन जैन सत्रों में इस मत और मतवालों के लिये सर्वत्र 'आजीवक' (आजीविय) शब्द ही प्रयुक्त हुआ है । कुछ भी हो, दोनों शब्दों का तात्पर्य एक ही है ।
अब हम यह देखेंगे कि इस मत का यह नाम पड़ने का कारण क्या है ? क्या आजीवका का साधन मात्र होने से ही इस मत का उक्त नामकरण हुआ है, अथवा किसी अन्य कारण से ?
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