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बमालिप्रवर्तित 'बहुरत' संप्रदाय चल कर जब उपराम पाती है तब कहीं जाकर कार्य सिद्धि होती है । इस प्रकार एक कार्य अनेक समय की क्रिया से निष्पन्न होता है । अतः कोई भी कार्य 'क्रियाकाल' में 'किया' नहीं कहा जा सकता, किन्तु क्रियाकलाप के अन्त में जब कार्य पूरा हो जाय तब उसे 'किया' कहना चाहिये ।
जमालि ने इस 'बहु'समयात्मक आग्रहवश अपना मतभेद खड़ा किया और उसके अनुयायी 'बहुरत' कहलाये ।
अब हमें देखना है कि इस विषय में वास्तविकता महावीर के कथन मैं है या जमालि के ।
महावीर का 'करेमाणे कडे' यह सिद्धान्त 'ऋजुसूत्र' नामक निश्चयनय पर प्रतिष्ठित है, क्योंकि ऋजुसूत्रनय केवल वर्तमानग्राही होने से इसके मत में किसी भी क्रिया का काल 'समय' मात्र है ।
इसके मत से कोई भी क्रिया अपने वर्तमान समय में कार्य साधक हीकर दूसरे समय में नष्ट हो जाती है । इस दशा में प्रथम समय की क्रिया प्रथम समय में ही कुछ कार्य करेगी और दूसरे समय की दूसरे में । प्रथम समय की क्रिया दूसरे समय में नहीं रहती और दूसरे समय की तीसरे में । इस दशा में प्रतिसमय भावी क्रियाएँ प्रतिसमय भावी पर्यायों का ही कारण हो सकती हैं, उत्तर कालभावी कार्य का नहीं । और जब क्रियाकाल और कार्यकाल निरंश समयमात्र है तब भगवान् महावीर का 'करेमाणे कडे' सिद्धान्त ही वास्तविक सिद्ध होता है ।
इस सूक्ष्म नय-तर्क को जमालि समझ नहीं सका । उसने सोचाएक कार्योत्पत्ति के पूर्ववर्ती क्रियाकलाप में जो समय लगता है वह सब उत्तरभावी अन्तिम कार्य का ही समय है, परन्तु वह यह नहीं समझ पाया कि किसी भी कार्य की उत्पत्ति के पहले असंख्य पूर्ववर्ती कार्य हो जाते हैं । ये सब कार्य अन्तिम कार्य का निमित्त समझी जानेवाली उन क्रियाओं का फल है जो प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति के पहले नियतरूप से हुआ करती हैं । यह वस्तुस्थिति हम एक दृष्टान्त से समझायेंगे ।
_ 'घट' कार्य के लिये कुंभकार चक्रभ्रमणादि अनेक प्रवृत्तियाँ करता
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