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श्रमण भगवान् महावीर है, तब 'घट' रूप कार्य उत्पन्न होता है । स्थूल दृष्टि में चक्रभ्रमणादि क्रियाकलाप 'घट क्रिया' प्रतिभासित होती है और 'घट-निष्पत्ति' इसका फल । वे यह नहीं देखते कि 'घटाकार' बनने के पूर्व मृत्पिण्ड के शिवकस्थासकादि कितने घट से विसदृश स्थूल आकार उत्पन्न होते हैं और कितने इन स्थूल आकारों के अन्तर्वर्ती प्रति समय भावी सूक्ष्म आकारों का आविर्भाव और तिरोभाव होता है । क्या ये सब कार्य नहीं ? यदि कार्य है तो क्या ये सब क्रियाओं के बिना ही उत्पन्न होते हैं ? अवश्य ही कहना पड़ेगा कि घटोत्पत्ति-क्रिया के पूर्व जो जो क्रियाएँ की जाती हैं उनके ये कार्य हैं । इनको हम घट नहीं पर घट के पूर्ववर्ती पर्याय कहेंगे और इनकी उत्पादक क्रियाओं को भी 'घटक्रिया' न कह कर 'घटप्राक्कालीन पर्यायक्रिया' कहेंगे । जिस अन्तिम क्रिया से 'घटपर्याय' बनता है उसी को हम 'घटक्रिया' कहेंगे और वह क्रिया अवश्य ही घटोत्पत्तिकालीन होगी, क्योंकि सभी क्रियाएँ अपने अनुरूप कार्य की उत्पादिकाएँ होती हैं । घटक्रिया का अनुरूप कार्य 'घट' ही हो सकता है, उसका पूर्वपर्याय अथवा उत्तरपर्याय नहीं । इससे सिद्ध हुआ कि 'घटोत्पत्तिकालीन किया' ही घटक्रिया है । और इस प्रकार जब क्रिया और कार्य समकालभावी सिद्ध होते हैं तब भगवान् महावीर का ऋजुसूत्र-नयानुसारी कथन 'करेमाणे कडे' अवश्य ही वास्तविक सत्यता रखता है ।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि घटोत्पत्ति-पूर्वकालीन क्रिया 'घटक्रिया' नहीं है तो उस समय 'घटः क्रियते' अर्थात् 'घट किया जाता है यह व्यवहार कैसे होता है ? क्योंकि घटपूर्ववर्ती पर्याय की क्रिया वस्तुतः 'घटक्रिया' न हो तो उस क्रियाकाल में 'घट किया जाता है' यह प्रतीति न होनी चाहिये । यह ठीक है । हम भी कहते हैं कि उक्त प्रतीति न होनी चाहिये, पर होती है । इसका कारण समय की सूक्ष्मता और पर्यायों की अस्थायिता है । घट के पूर्वपर्याय इतनी शीघ्रता से बनते बिगड़ते हैं कि उनका अन्यान्य पदार्थों के रूप में अनुभव करना और भिन्न भिन्न नामों से उल्लेख करना अशक्य ही नहीं, असंभव है । उस दीर्घकालीन क्रियाकलाप के अन्त में हम जिस स्थायी पर्याय को देखते हैं वही 'घट' है । प्रकत क्रियाकलाप
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