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________________ भगवान् महावीर के पूर्वभव २५७ प्रार्थना की और घर चलने के लिये आग्रह किया पर वे अपने निश्चय से विचलित न हुए । विश्वभूति प्रव्रजित होकर विविध तप करने लगे । षष्ठ- अष्टम से लेकर वे मासक्षपण तक करते हुए देश विदेशों में विहार करते थे । कालान्तर में विश्वभूति मथुरा गये और मासक्षपण की समाप्ति पर नगर में भिक्षाचार्य करने निकले । उन दिनों कुमार विशाखनन्दी भी शादी करने मथुरा आया हुआ था और अपनी बरात के साथ राजमार्ग के निकट ठहरा था । विश्वभूति उधर से होकर भिक्षाचर्या के लिए जा रहे थे । उन्हें देख कर विशाखनन्दी के मनुष्यों ने कहा— कुमार ! आप इन्हें जानते हैं ? विशाखनन्दी ने कहा- - नहीं । मनुष्यों ने कहा—ये विश्वभूति कुमार हैं । विश्वभूति को देखते ही विशाखनन्दी की आँखों में क्रोध आ गया । सरोष नेत्रों से वे देख ही रहे थे कि एक नवप्रसूता गाय ने विश्वभूति को श्रृंग - प्रहार से गिरा दिया । यह देख कर विशाखनन्दी और उसके साथी खिलखिला कर हँसे और बोले—कहाँ गया वह तेरा कैथ गिरानेवाला बल ? मुनि ने उधर देखा तो विशाखनन्दी पर दृष्टि पड़ी। उनके मन में रोष आया और गाय के शृंगों को पकड़ कर चक्र की तरह ऊपर घुमाते हुए बोलेदुर्बल सिंह का बल भी श्रृगालों से नहीं लांघा जाता । मुनि वहीं से पीछे लौट गये। वे मन में बोले- -अबतक यह दुरात्मा मुझ पर रोष धारण किये हुए है ? उन्होंने निदान किया— 'यदि इस तपसंयम और ब्रह्मचर्य का कुछ भी फल हो तो भविष्य में मैं अपरिमित बलशाली होऊँ ।' विश्वभूति ने अपने निदान का कभी पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त नहीं किया । वे अपने साधु — जीवन को निभाते हुए आयुष्य पूर्ण कर महाशुक्र कल्प में देवपद को प्राप्त हुए । श्रमण- १७ Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.008068
Book TitleShraman Bhagvana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2002
Total Pages465
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, & Philosophy
File Size8 MB
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