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श्रमण भगवान् महावीर
राजा ने कहा-इसका कोई उपाय नहीं है। हमारी कुल-मर्यादा है कि जबतक प्रथम प्रविष्ट पुरुष बाहर न आ जाय, दूसरा बाग में प्रवेश नहीं कर सकता । विश्वभूति वसन्तऋतु बिताने के लिए अन्दर ठहरा हुआ है, वह बाहर नहीं निकलेगा ।
अमात्य-इसका उपाय हो सकता है ।
अमात्य ने अज्ञात मनुष्यों के हाथ से राजा के पास कृत्रिम लेख पहुँचाये । लेख पढ़ते ही राजा ने युद्धयात्रा उद्घोषित की । यह बात विश्वभूति के कानों तक पहुँची और वह तुरंत बाग से निकल कर राजा के पास गया और राजा को रोक कर आप युद्धयात्रा के लिए चल दिया ।
जिस प्रदेश में शत्र के उपद्रव की बात कही गई थी, वहाँ विश्वभूति दलबल के साथ जा पहुँचा । पर वहाँ न कुछ उपद्रव देखा, न युद्ध की हलचल । विश्वभूति जैसे गया वैसे ही वापस लौट आया ।
विश्वभूति के बाहर निकलते ही राजकुमार विशाखनन्दी ने पुष्पकरण्डकोद्यान में अपना स्थान जमा लिया ।
विश्वभूति लौट कर घर आये और बाग में जाने लगे तब द्वारपालों ने रोक कर कहा-कुमार विशाखनन्दी अन्तःपुर के साथ उद्यान में ठहरे
अब विश्वभूति को ज्ञात हुआ कि युद्ध का संरम्भ वास्तव में उसे बाग से बाहर निकालने का प्रपंच मात्र था । क्रोध में आकर विश्वभूति ने द्वार पर स्थित एक कैथ के वृक्ष पर जोर से मुष्टि-प्रहार किया जिससे गिरे हुए कैथों से जमीन ढक गई । उसने द्वारपालों से कहा-मैं इसी प्रकार तुम्हारे सिर गिरा देता यदि बड़े बाप (ताऊ) का गौरव न करता ।
विश्वभूति को इस अपमान से बड़ा आघात लगा । वह विरक्त हो कर घर से निकल गया और आर्यसंभूत स्थविर के निकट जाकर साधु हो गया ।
राजा, युवराज और अन्य स्वजनगण ने जाकर विश्वभूति से क्षमा
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