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भगवान् महावीर के पूर्वभव भ्रमण किया जो भव मिने नहीं गये । चौदहवाँ और पन्द्रहवाँ भव
चौदहवें भव में बलाधिक का जीव राजगृह में स्थावर नामक ब्राह्मण हआ । उसने अपने चौंतीस लाख पूर्व वर्ष में से अधिकांश गृहस्थाश्रम में व्यतीत किये । अन्त में परिव्राजक धर्म स्वीकार किया और आयुष्य की समाप्ति होने पर ब्रह्म देवलोक में देव हुआ ।
ब्रह्म देवलोक से च्युत हो कर उसने कुछ काल तक अनियत भ्रमण किया जिसकी स्थूल भवों में गणना नहीं की गई । सोलहवाँ और सत्रहवाँ भव
सोलहवें भव में बलाधिक का जीव राजगृह नगर में विश्वनन्दी राजा के भाई विशाखभूति का पुत्र विश्वभूति राजकुमार हुआ । वह युवावस्था में नगर के बाहर पुष्पकरण्डक उद्यान में रहता और अन्तःपुर के साथ सुखविहार में बिताता था । उसका यह सुख रानी की दासियों से सहा नहीं गया । उन्होंने रानी के सामने विश्वभूति के सुख-विहार और क्रीड़ाओं का वर्णन करते हुए कहा—राज्य के सुख-वैभव तो विश्वभूति भोग रहा है । यद्यपि कुमार विशाखनन्दी राजा के पुत्र हैं तथापि विश्वभूति के सुख वैभवों के सामने उनके सुख किसी गिनती में नहीं । कहने के लिए भले ही राज्य हमारा हो पर उसका वास्तविक फलोपभोग तो विश्वभूति के ही भाग्य में लिखा है ।।
दासियों की बातों से रानी के हृदय में ईर्ष्याग्नि भड़क उठी और उसने कोपगृह का आश्रय लिया । खबर मिलने पर राजा उसके पास गया
और शान्त करने की कोशिश की । रानी कड़क कर बोली-जब राजा की जीवितावस्था में ही यह दशा है तब पीछे तो हमें गिनेगा ही कौन ?
राजा के बहुत अनुनय करने पर भी जब वह शान्त न हुई तब यह बात अमात्य तक पहुँची और उसने भी बहुत कुछ कहा सुना, पर सफलता नहीं मिली । आखिर अमात्य ने राजा को सलाह दी-महाराज ! देवी के वचन का अनादर न कीजिये । स्त्रीहठ है, कहीं आत्मघात न कर बैठे ।
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