________________
भगवान् महावीर के पूर्वभव
२५३
हूँ । संसार में जो बड़े बड़े लाभ हैं वे सब तुम्हें ही मिल गये हैं । तुम इसी भारतवर्ष में त्रिपृष्ठ वासुदेव, महाविदेह में प्रियमित्र चक्रवर्ती और फिर यहाँ वर्द्धमान नामक चौबीसवें तीर्थंकर होगे ।
भरत की बात से मरीचि बहुत प्रसन्न हुआ । वह त्रिपदी आस्फालन करके बोला – अहो ! मैं वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थंकर होऊँगा ! बस मेरे लिये इतना ही बहुत है ।
मैं वासुदेवों में पहला ! पिता चक्रवर्तियों में पहले ! और दादा तीर्थंकरों में पहले ! अहो ! मेरा कुल कैसा श्रेष्ठ है !
भगवान् ऋषभदेव की जीवितावस्था में मरीचि भगवान् के साथ विचरते रहे और उनके निर्वाण के बाद उनके शिष्यों के साथ । उनके पास जो उपदेश श्रवण करने जाता उसे श्रमणधर्म का उपदेश करते और वैराग्यप्राप्तदीक्षार्थी को साधुओं के पास भेजते । कोई यह पूछता कि आप खुद दीक्षा क्यों नहीं देते ? तब कहते — 'मैं खरा साधु नहीं हूँ, यथार्थ साधुमार्ग वही है जो श्रमण पालते हैं ।'
एक समय मरीचि बीमार पड़े । वे विशाल साधु-समुदाय के साथ थे तथापि असंयत समझ कर श्रमणों ने उनकी परिचर्या नहीं की । अब मरीचि को अपनी असहायावस्था का भान हुआ और उसे अपने लिए एक शिष्य की आवश्यकता प्रतीत हुई ।
एक बार मरीचि के पास कपिल नामक राजपुत्र आया । मरीचि ने उसे संसार की असारता का उपदेश किया । कपिल संसार से विरक्त हो कर साधु होने को तैयार हुआ तब मरीचि ने उसे साधुओं के पास श्रामण्य लेने को कहा । कपिल ने कहा- मैं आप के मत में प्रव्रजित होना चाहता हूँ । क्या आपके मत में धर्म नहीं है ? मरीचि ने कहा- - है । धर्म वहाँ भी है और यहाँ भी । यह कहकर उसने कपिल को अपना शिष्य बना लिया ।
चौरासी लाख पूर्व वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके मरीचि ने ब्रह्मदेवलोक में देवपद प्राप्त किया ।
Jain Education International
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org