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श्रमण भगवान् महावीर पर्यन्त गुरूपदेश का अनुसरण करते हुए उसने अपना जीवन सफल किया ।
दूसरे भव में बलाधिक ने सौधर्म कल्प में पल्योपम की आयुस्थितिवाला देवपद प्राप्त किया । तीसरा और चौथा भव
देव गति का जीवन पूर्ण होने के अनन्तर बलाधिक का जीव तीसरे भव में चक्रवर्ती भरत का पुत्र मरीचि नामक राजकुमार हुआ ।
एक समय भगवान् ऋषभदेव पुरिमताल के उद्यान में पधारे । नागरिकगण और राजपरिवार के सब लोग भगवान् को वन्दन करने और धर्मोपदेश सुनने गये । भगवान् ने वैराग्यजनक धर्मदेशना की जिसे सुन कर मरीचि संसार से विरक्त हो गये और अनेक राजपुत्रों के साथ श्रमण-धर्म की प्रव्रज्या लेकर भगवान् के साथ विचरते लगे ।
बहत समय तक प्रव्रज्या पालने के बाद मरीचि श्रमण-मार्ग की कठिन क्रियाओं से ऊब गये और साधुवेश के बदले उन्होंने एक नूतन वेश धारण किया । हाथ में त्रिदण्ड, सिर पर शिखा तथा छत्र, पाँवों में पादुकायें
और शरीर पर गेरुआ वस्त्र धारण कर अपने को निर्ग्रन्थ श्रमणों से जुदा कर लिया ।
एक समय राजा भरत ने ऋषभदेव से पूछा-भगवन् ! आपकी इस धर्मसभा में कोई भावी तीर्थंकर है ? उत्तर में मरीचि की तरफ इशारा करते हुए भगवान् ने कहा-राजन् ! यह त्रिदण्डी तेरा पुत्र मरीचि इसी अवसर्पिणी काल में चौबीसवाँ महावीर नामक तीर्थंकर होगा । इतना ही नहीं, तीर्थंकर होने से पहले यह भारतवर्ष में त्रिपृष्ठ नामक वासुदेव होगा । उसके बाद पश्चिम महाविदेह में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा और अन्त में भारतवर्ष में अन्तिम तीर्थंकर महावीर होगा ।
__ भगवान् के मुख से भावी वृत्तान्त सुनकर भरत मरीचि के निकट जाकर वन्दनपूर्वक बोले-मरीचि ! मैं तुम्हारे इस परिव्राजकत्व को नहीं वन्दन करता पर तुम अन्तिम तीर्थंकर होनेवाले हो, यह जान कर तुम्हें वन्दन करता
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