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तृतीय परिच्छेद भगवान् महावीर के पूर्वभव
पहला और दूसरा भव
पश्चिम महाविदेह के एक गाँव में बलाधिक' नामक एक राज्याधिकारी था । एक समय वह राजाज्ञा पाकर काठ लिवाने के लिए गाड़ियाँ लेकर जंगल में गया । मध्याह्न का समय हआ और बलाधिक तथा उसके साथी दोपहर के भोजन की तैयारी करने लगे । ठीक उसी समय वहाँ एक साधुसमुदाय आया । साधु किसी एक सार्थ के संग चल रहे थे और सार्थ के आगे निकल जाने पर मार्ग भूलकर भटकते हुए दोपहर को उस प्रदेश में आये जहाँ बलाधिक की गाड़ियों का पडाव था ।
साधुओं को देखते ही बलाधिक का हृदय दयार्द्र हो गया । उसने कहा-बड़े खेद की बात है, मार्ग से अनजान बेचारे तपस्वी लोग मार्ग भूलकर जंगल की राह पड़ गये हैं । वह उठा और आदरपूर्वक श्रमणों को अपने पास बुला कर आहार-पानी से उनका आतिथ्य किया और बोला, चलिए महाराज ! आप को मार्ग पर चढ़ा हूँ। वह आगे चला और साधुगण उसके पीछे । मार्ग में चलते हुए गुरु ने योग्य जीव जान कर बलाधिक को धर्मोपदेश किया जो उसके हृदय में बैठ गया । साधुओं को मार्ग बता कर बलाधिक वापस लौटा ।
थोड़े से उपदेश से बलाधिक ने सम्यक्त्व प्राप्त किया और जीवन
१. चरित्रकारों ने इसका नाम नयसार लिखा है ।
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