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श्रमण भगवान् महावीर परकृत, परनिष्ठित, उद्गम-उत्पादनादि दोष रहित, प्रासुक और भिक्षाचर्या के क्रम से प्राप्त परिमित आहार का ही संयमनिर्वाह के लिये भिक्षु भोजन करे ।
वह आहार के समय आहार, पानी के समय पानी, वस्त्र के समय वस्त्र, उपाश्रय के समय उपाश्रय और शयन के समय शयन का उपभोग करे ।
उपदेशविधि का ज्ञाता भिक्षु दिशा, विदिशा में जहाँ जाय वहाँ धर्मोपदेश करे । भाव से अथवा कौतुक से भी जो कोई श्रोता आवे उसके आगे धर्म की विशेषताएँ और उसके फल का प्रतिपादन करे ।
वह शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, सरलता, कोमलता, लघुता और प्राणिमात्र की अहिंसा का उपदेश करे ।
वह अन्न, पानी, वस्त्र, उपाश्रय, स्वजन और सांसारिक सुखों की प्राप्ति के लिये कभी धर्मोपदेश न करे । केवल कर्मनिर्जरा ही उसके धर्मकथन का निमित्त हो ।
जिन वीर पुरुषों ने भिक्षु के निकट धर्मश्रवण करके उसका स्वीकार किया वे मोक्ष मार्ग को प्राप्त हुए, सर्व पापों से दूर हुए, सम्पूर्ण शान्ति को प्राप्त हुए, कर्मक्षय कर निर्वाण को प्राप्त हुए ।
यही वह धर्मार्थी, धर्मविद् और संयमी भिक्षु है जिसकी आवाज से महापुण्डरीक के उड़ने की बात कही थी ।
जिसने कर्मों, संयोगों और गृहवास को जाना है और जो शान्त, समित, हितसाधक और संयमी है ऐसे भिक्षु को श्रमण, ब्राह्मम, शान्त दान्त, गुप्त, मुक्त, ऋषि, मुनि, कृती, विद्वान्, भिक्षु, सुज्ञ, तीरार्थी और चरण-करणपारविद् इन नामों में बुलाना योग्य हैं ।
१. सूत्रकृताङ्ग श्रुतस्कन्ध २, अध्याय १, पृ० २७०-२९८ ।
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