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प्रवचन
२४९ करते हैं कि किसी जीव, भूत, प्राण और सत्त्व को न मारो, न दुःख दो, न पकड़ो, न सताओ और न प्राणमुक्त ही करो । यही ध्रुव, नित्य और शाश्वत धर्म है, जो लोक में आकर जगत् की पीड़ा जाननेवाले तीर्थंकरों ने कहा है । अतएव प्राणिहिंसा, असत्यवचन, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह का त्यागी भिक्षु दातुन, अंजन, वमन, विरेचन, धूप और धूम्रपानादि न करे । इस प्रकार वह अक्रिय तथा अहिंसक हो क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग कर बाह्य तथा आभ्यन्तरिक शान्ति में रहता हुआ देखे, सुने, माने अथवा जाने हुए किसी भी तरह के सुख की प्रार्थना न करे । वह कभी ऐसा विचार न करे कि मैं जो यहाँ सदाचरण, तप, नियम और ब्रह्मचर्य में रहता हूँ और धर्म का आराधन करता हूँ इसके फलस्वरूप मुझे देवगति प्राप्त हो या यहीं पर सिद्धियाँ प्राप्त हों, अथवा मैं सुखी ही होऊँ, दुःखी न होऊँ ।
जो शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में आसक्त नहीं होता तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, कलह, पैशुन्य, परनिन्दा, रतिअरति, मायामृषा और मिथ्यादर्शन-शल्य से दूर रहता है वह महाकर्मबन्ध से बचा हुआ और हिंसादि पापों से विराम पाया हुआ भिक्षु है ।
जो त्रस-स्थावर प्राणधारियों का आरंभ स्वयं नहीं करता, दूसरों से नहीं कराता और करनेवालों का अनुमोदन नहीं करता वह महाकर्मादान से बचा और पापस्थान से विराम पाया हुआ भिक्षु है ।
___ जो सांपरायिक क्रिया स्वयं नहीं करता, दूसरों से नहीं कराता और करनेवालों का अनुमोदन नहीं करता वह महाकर्मादान से बचा हुआ और पापस्थान से विरत भिक्षु हैं ।
जो अशन, पान, स्वाद्य और खाद्य पदार्थों के संबन्ध में यह जानता हुआ कि वे किसी भी साधर्मिक साधु के उद्देश से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का आरंभ करके बनाये, खरीदे या माँग कर लाये गए हैं अथवा वे किसी से छीने या स्थनान्तर से लाये हुए हैं, स्वयं उनका भोजन नहीं करता, दूसरों को नहीं कराता और करनेवालों का अनुमोदन नहीं करता. वहीं महाकर्मादान से बचा हुआ पापस्थान से विरत भिक्षु है ।
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