________________
२४८
श्रमण भगवान् महावीर में मोह रक्खू ? मैं इनको छोडूंगा । बुद्धिमान् के लिये ये सब बाह्य हैं ।
__ और तो और; हाथ, पाँव, बाह, जाँघ, पेट, मस्तक, शील, आयुष्य. बल, वर्ण, त्वचा, कान्ति, कान, आँख, नाक, जीभ और स्पर्श प्रमुख अतिनिकटवर्ती अवयव, जिनकी मैं ममता करता हूँ, प्रतिक्षण जीर्ण होते हैं । शरीर की सन्धियाँ शिथिल पड़ती हैं । शरीर पर झुर्रियाँ पड़ती है । काले बाल सफेद हो जाते हैं और यह सुन्दर शरीर धीरे-धीरे त्यागने योग्य हो जाता है । यह जानकर भिक्षाचार्य के लिये उद्यत हुए भिक्षु को इस लोक में जीव, अजीव, त्रस और स्थावर को अवश्य जानना चाहिए ।
संसार में गृहस्थ आरंभ-परिग्रहवाले होते हैं, पर कतिपय श्रमण-ब्राह्मण भी आरंभ-परिग्रहधारी होते हैं । वे स-स्थावर प्राणियों का आरंभ करते कराते हैं । वे सचित्त-अचित्तादि कामभोगों का स्वीकार करते कराते हैं और इन कामों को वे उत्तेजन देते हैं । मैं अनारंभ और अपरिग्रह हूँ। हम इन्हींके आश्रय से ब्रह्मचर्य-श्रमणधर्म का पालन करेंगे, क्योंकि ये तो जैसे पहले थे वैसे ही अब भी हैं । प्रकट है कि ये कर्मबन्ध से नहीं हटे और संयम-मार्ग में उपस्थित नहीं हुए । इनकी वही दशा है जो पहले थी । ये आरंभ-परिग्रह में मग्न हुए पाप कर रहे हैं । यह जानकर भिक्षु दोनों तरफ से अलिप्त होकर विचरे । इस प्रकार वह कर्मों को जान और रोककर उनका नाश कर सकेगा ।
कर्मबन्ध के विषय में भगवान् ने इन षड़जीवनिकायों को हेतु कहा है-पृथिवीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय ।
__ जैसे मुझे दंड, हड्डी, मुक्के, ढेले अथवा कर्पर से दबाने, मारने, धमकाने, ताड़ने से और परिताप तथा उपद्रव करने से दुःख होता है, यहाँ तक कि शरीर का एक भी रोम नोचने से मैं अत्यन्त दुःख और भय का अनुभव करता हूँ, वैसे ही सर्वजीव, सर्वभूत, सर्वप्राण और सर्वसत्त्वों को दण्ड आदि से ताड़न तर्जनादि करने से दुःख होता है । एक भी रोम नोचने से उन्हें अत्यन्त दुःख और भय का अनुभव होता है । इसलिए भूत, भविष्यत् और वर्तमान के सभी अर्हन्त भगवान् यह कथन, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org