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प्रवचन
२४७ पदार्थों पर ममता करते हैं और कहते हैं-'मेरा खेत, मेरा रूपा, मेरा सोना, मेरा धन, मेरा धान्य, मेरा बर्तन, मेरा वस्त्र, मेरा मणि, मेरा मोती रत्नादिक सारा धन और मेरे शब्द, रूप, गन्ध, रस तथा स्पर्श । ये सब काम-भोग मेरे हैं और मैं इनका ।'
परन्तु समझदार के शरीर में कोई दुःख अथवा भयंकर रोगातङ्क उत्पन्न होता है तो वह कहता है—'हे कामभोगो ! मेरे इस दुःख को तुम अपने ऊपर ले लोगे ? मैं दु:खी, शोकाकुल, चिन्तित और पीड़ित हूँ। तुम मुझे इस दुःख से छुड़ाओगे ?' और वह सोचता है कि यह बात कभी नहीं हुई कि संसार में कामभोग किसी की रक्षा कर सकें । एक दिन या तो पुरुष कामभोगों को छोड़ेगा अथवा कामभोग पुरुष को । कामभोगों में और आत्मा में वास्तविक संबन्ध ही नहीं, फिर हम क्यों विभिन्न कामभोगों में लुब्ध होते हैं ? हम इनको छोड़ेगे, क्योंकि बुद्धिमान् के लिए ये सब बाह्य हैं ।
किसी की यह समझ हो कि कामभोग भले ही बाह्य हों पर माता, पिता, भाई, बहन, स्त्री, पुत्र, पुत्री, दास और स्वजन-परिजनादि ज्ञातिजन तो निकटवर्ती होने से मेरे हैं और मैं इनका । बुद्धिमान् यह सोचता है कि हे ज्ञातियो ! यदि मुझ पर कोई दुःख अथवा भयंकर रोगातङ्क आ पड़ेगा तो तुम मेरे उस दुःख को उठा लोगे ? मैं दुःखी, शोकात अथवा चिन्तित होऊँगा, तब तुम मुझे उससे छुड़ाओगे ? मैं समझता हूँ कि ऐसी बात कभी नहीं हुई । मेरे इन पूज्य ज्ञातिजनों पर किसी प्रकार का कष्ट आ पड़ेगा तो मैं भी उसको अपने ऊपर लेने में असमर्थ हूँ। मुझे उस समय यही ख्याल आयेगा कि मैं दुःखी, शोकात और चिन्तित न होऊँ । इस प्रकार मैं उनके दुःख का उद्धार नहीं कर सकता । यह बात कभी हुई ही नहीं कि एक का दुःख दूसरा ले ले अथवा एक का किया हुआ कर्म दूसरा भोगे । यहाँ प्रत्येक जीव अकेला जन्मता है और अकेला मरता है । वह अकेला च्यवता है और अकेला ही उत्पन्न होता है । कषाय, संज्ञा, विचार, ज्ञान और अनुभव ये सब प्रत्येक के भिन्न-भिन्न होते हैं । इसलिए ज्ञातिसंयोग किसीका शरण और त्राण नहीं हो सकते । या तो पुरुष ज्ञातिसंयोगों को छोड़कर पहले जायगा अथवा तो ज्ञातिसंयोग पुरुष को छोड़ेंगे । इसलिये मैं क्यों इन विभिन्न ज्ञातिसंयोगों
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