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श्रमण भगवान् महावीर
चौथा पुरुषजात 'नियतिवादी' कहलाता है । नियतिवादी श्रमण-ब्राह्मण भी जिज्ञासुओं को धर्मोपदेश देने जाते हैं और कहते हैं कि जिस धर्म की हम प्रज्ञापना करेंगे वही यथार्थ है । वे कहते हैं—
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" पुरुष दो प्रकार के होते हैं । एक तो वे जो क्रिया का उपदेश करते हैं और दूसरे वे जो अक्रिया का कथन करते हैं । हमारे मत से ये दोनों ही नियतिवश होने से बराबर हैं । कुछ भी निमित्त मिलने पर अज्ञानी पुरुष कहता है कि मैं दुःखी हूँ, मैं शोकाकुल, निर्बल और पीड़ित हूँ । मैं सताया जाता हूँ और झुरता हूँ । यह सब दुःख मेरा ही किया हुआ है । वह जीव दुःख, शोक और संताप आदि का अनुभव करता है वह उसकी करनी का फल है । पर बुद्धिमान् ऐसा नहीं समझता । निमित्त पाकर वह कहता है कि मैं दुःखी हूँ, मैं चिन्तित हूँ, अथवा वह दुःखी और पीड़ित है । पर वह यह नहीं कहता कि यह दुःख मेरा और उसका किया हुआ है ।
" इस पृथिवी पर जो त्रस - स्थावर प्राणी भिन्न-भिन्न शरीर, भिन्न-भिन्न अवस्था, भिन्न-भिन्न विवेक और भिन्न-भिन्न विधान के प्राप्त होते हैं वह सब नियति के ही बल से ।"
नियतिवादी क्रिया- अक्रिया, सिद्धि-असिद्धि, नरक-स्वर्ग सर्वत्र नियति का ही प्राधान्य समझते हैं और नाना प्रकार के काम-भोगों के लिए नाना प्रकार के कर्मारम्भ करते हैं । इस प्रकार नियतिवादी आर्य-मार्ग को न पाकर कामभोगों में फँस कर न इधर के रहते हैं, न उधर के ।
इस प्रकार नाना बुद्धि, नाना रुचि, नाना अभिप्राय, नाना अनुष्ठान, नाना दृष्टि, नाना आरम्भ और नाना अध्यवसायवाले उक्त चार पुरुष - जात गृहकुटुम्ब को छोड़ कर भी आर्य-मार्ग को न पाकर कामभोगों में फँसे हुए न इधर के रहते हैं, न उधर के ।
अब पुण्डरीक के उद्धारक भिक्षु के विषय में सुनिए ।
प्राच्य, पाश्चिमात्य आदि अनेक मनुष्य होते हैं । उनमें आर्य-अनार्य, सुरूप - कुरूप, भले-बुरे सभी प्रकार के मनुष्य होते हैं । उनमें कई जमीनजागीरवाले होते हैं और कई छोटे बड़े देशों के अधिकारी होते हैं । वे अन्यान्य
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