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प्रवचन
२४५ प्रकार के विषय- भोग करते हैं । स्वयं विपरीत मार्ग पर चढ़े हैं और श्रद्धालुओं को चढ़ाते हैं । राग-द्वेष के वश पड़े हुए ये न अपना उद्धार कर सकते है, न दूसरों का । आर्य-मार्ग से बहिर्भूत वे न इधर के रहे न उधर के ।
तीसरा पुरुषजात 'ईश्वरकारणिक' कहलाता है । इस मत के श्रमणब्राह्मण राजा तथा उसके सभासद आदि श्रद्धावानों के पास जाकर कहते हैं
___ "इस लोक में धर्मों का आदि तथा उत्तर कारण पुरुष है, क्योंकि सब धर्म पुरुषप्रणीत, पुरुष से ही व्याप्त होकर रहते हैं। जैसे शरीर में उत्पन्न
और बढ़ा हुआ गंड शरीर से मिला रहता है, वैसे ही सब धर्म पुरुषादिक' हैं और पुरुष में ही व्याप्त होकर रहते हैं । जैसे अरति शरीर में उत्पन्न होती है और बढ़ कर शरीर में रहती है, वैसे ही धर्म पुरुषादिक हैं और पुरुष को व्याप्त होकर ही रहते हैं । जैसे वल्मीक, वृक्ष और पुष्करिणी पृथिवी में उत्पन्न और बढ़े हुए पृथिवी में ही रहते है, वैसे धर्म भी पुरुषादिक हैं और पुरुष में ही रहते हैं । जैसे जलसमूह और जलबुद्बुद जल में उत्पन्न होते
और जल में ही रहते हैं, वैसे ही धर्म भी पुरुषादिक हैं और पुरुष में ही रहते हैं।
"यह जो श्रमण-निर्ग्रन्थों के निमित्त बना हुआ आचाराङ्ग-सूत्रकृताङ्गादि से लेकर दृष्टिवादपर्यन्त द्वादशाङ्ग गणिपिटक है, वह सब मिथ्या है । उसमें कुछ भी सत्यता और यथार्थता नहीं । हम जो कहते हैं, वही ठीक है ।"
जिस तरह पक्षी पिंजरे से दूर नहीं जा सकता, उसी तरह इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए वे दुःख से दूर नहीं होते; क्योंकि इनके मत में क्रिया-अक्रिया, सिद्धि-असिद्धि, स्वर्ग-नरक सब कुछ ईश्वर के हाथ है । मनुष्य किसी कार्य में स्वतंत्र नहीं । सर्वत्र ईश्वर को ही कारण बताते हुए वे तरह तरह के आरंभ-समारंभ करके वैषयिक सुखों की साधना करते हैं । इस प्रकार वे स्वयं भृले हैं और दूसरों को भुलाते हैं। वे न अपना उद्धार कर सकते हैं, न पराया । आर्य - मार्ग को न पाकर न इधर के रहते हैं, न उधर के ।
१. पुरुष है आदि---मूलकारण जिनका ।
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