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श्रमण भगवान् महावीर
रहते । वे स्वयं परिग्रहादि ग्रहण करते तथा कराने लगते हैं और सुख-भोगों में लीन हो जाते हैं ।
राग-द्वेष के वश में पड़े हुए वे न अपना ही उद्धार करते हैं, न दूसरों का । संसार में छोटे बड़े किसी भी प्राणी का उनसे उद्धार नहीं होता । घर, कुटुम्ब को त्याग कर भी वे आर्य-मार्ग को न पाकर न इधर के रहते हैं, न उधर के ।
दूसरा पुरुषजात पाञ्चमहाभूतिक कहलाता है । इस मत के श्रमणब्राह्मण भी पूर्वोक्त राजा अथवा उसके सभासदों में जो श्रद्धावान् होते हैं उनके पास धर्मोपदेश देने जाते हैं और कहते हैं—
" महानुभावो ! हम जिस धर्म का उपदेश करेंगे वह उपपन्न और व्यवस्थित है । लोक में पञ्चमहाभूत ही सब कुछ हैं । हमारे मत में भूतों के अतिरिक्त न क्रिया है न अक्रिया, न सुकृत है न दुष्कृत, न पुण्य है न पाप, न भला है न बुरा, न सिद्धि है न असिद्धि, न नरक है और न दूसरी गति । भूतों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है ।
" वे भूत पृथक् पृथक् नामों से पुकारे जाते हैं जैसे पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश । इन पाँच महाभूतों को न किसी ने बनाया न बनवाया, न किया न कराया । वे अनादि अनन्त हैं । इनका कोई प्रवर्तक भी नहीं । ये स्वतन्त्र और शाश्वत हैं ।
" किन्हीं का कहना है कि इन पाँच भूतों के उपरान्त छठी आत्मा है । इस मत में सत् का नाश और असत् की उत्पत्ति नहीं होती । किन्तु पाञ्चमहाभूतिक मत में यही जीवकाय, यही अस्तिकाय और यही लोक है, जो प्रत्यक्ष है । और इन सब का कारण महाभूत है ।"
इनके मत में खरीदता खरीदवाता मारता मरवाता, पकाता और पकवाता हुआ भी निर्दोष है । यहाँ तक कि पुरुष को खरीद कर कोई मरवा डाले तब भी दोष नहीं ।
पाञ्चमहाभूतिक क्रिया अक्रिया आदि कुछ भी नहीं मानते । विविध
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