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अष्टकोण ? रंग में वह कृष्ण है, नील है, रक्त है, पीत है या श्वेत ? गन्ध में वह सुरभिगन्धी है या दुरभिगन्धी ? रस में वह तीक्ष्ण है, कटु है, कषाय है, अमृत है या मधुर ? स्पर्श में वह कर्कश है, कोमल है, गुरु है, लघु है, शीतल है, उष्ण है, स्निग्ध है या रूक्ष ?
प्रवचन
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" शरीर और आत्मा को पृथक्-पृथक् मानना ठीक नहीं, क्योंकि जैसे तलवार म्यान से निकाल कर बताई जाती है वैसे आत्मा को शरीर से पृथक करके दिखानेवाला कोई नहीं है । जैसे मुंज और उसके रेशे पृथक् पृथक् बताये जा सकते हैं वैसे आत्मा और शरीर को जुदा जुदा नहीं दिखाया जा सकता कि 'यह' आत्मा है और 'वह' शरीर । इसी प्रकार मांस से हड्डी, करतल से आमलक, दही से मक्खन, तिलों से तैल, ईख से मीठा रस और अरणिकाष्ठ से अग्नि पृथक् कर बताया जा सकता है वैसे आत्मा को शरीर से अलग करके कोई नहीं बता सकता ।
" इसलिये जिनके मत में आत्मा असत् और अज्ञेय है उन्हीं का कथन यथार्थ है ।"
इस प्रकार तज्जीव- तच्छरीरवादी आत्मा का अस्तित्व न मान कर स्वयं हिंसा करते हैं और दूसरों को वैसा करने का उपदेश देते हैं । उनके मत में शरीर के अतिरिक्त आत्मा नहीं और परलोक भी नहीं । वे क्रिया, अक्रिया, सुकृत, कल्याण, पाप, भला, बुरा, सिद्धि, असिद्धि, नरक और भवान्तर कुछ भी नहीं मानते । खान-पान तथा सुख भोगों के निमित्त नाना प्रकार के हिंसक कर्म करते हैं ।
कोई कोई प्रव्रजित भी साहस कर इसका उपदेश करते हैं जिसे सुनकर श्रद्धा करनेवाले कहते हैं— 'अच्छा कहा श्रमण ! अच्छा कहा ब्राह्मण ! हम तुम्हारी पूजा करते हैं, ।' यह कहकर वे खान, पान, वस्त्र, पात्र, कम्बलादि का दान करते हैं, जिसका वे स्वीकार करते हैं । पहले जब वे घर छोड़ते हैं तब यह विचार करते हैं कि हम श्रमण अनगार होंगे; धन, पुत्र, पसु आदि कुछ भी परिग्रह न रक्खेंगे; परदत्त भोजन करेंगे और कुछ भी पाप कर्म नहीं करेंगे; पर तज्जीव- तच्छरीरवादी होने के बाद वे किसी नियम से बँधे नहीं
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