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श्रमण भगवान् महावीर करके समझाऊँगा।
___ इस लोक में कई मनुष्य पूर्व में उत्पन्न होते हैं, कई पश्चिम में । कई उत्तर में जन्म लेते हैं और कई दक्षिण में । इनमें कई आर्य होते हैं, कई अनार्य । कई उच्च गोत्र के होते हैं, कई नीच गोत्र के । कई विशालकाय होते हैं, कई वामन । कई सुवर्ण होते हैं, कई दुर्वर्ण । कई सुरूप होते हैं और कई कुरूप ।
उन मनुष्यों का एक मूर्धाभिषिक्त राजा होता है जो सत्त्वगुण से हिमवन्त, मेरु और महेन्द्र पर्वत की उपमा पाता है । विशुद्ध राजकुलीन और राजलक्षणोपेत होने से वह जनपूजित होता है और देश का पिता कहलाता है ।
उस राजा की राजसभा के ये सभासद होते हैं—उग्र, उग्रपुत्र, भोग, भोगपुत्र, इक्ष्वाकु, इक्ष्वाकुपुत्र, ज्ञात, ज्ञातपुत्र, कौरव्य, कौरव्यपुत्र, भट्ट, भट्टपुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणपुत्र, लिच्छवि, लिच्छविपुत्र, प्रशास्ता, प्रशास्तापुत्र, सेनापति और सेनापतिपुत्र ।
इनमें कोई श्रद्धावान् है, यह जानकर कुछ श्रमण-ब्राह्मण उसे धर्मोपदेश करने का निश्चय करते हैं और उसके पास जाकर कहते हैं- "हम अमुक धर्म का उपदेश करेंगे, आप सुनिये । यह धर्म कैसा अच्छा है, यह सुनने से मालूम होगा ।" यह कह कर उनमें से पहला पुरुष-जात कहता है
"पादतल से लेकर सिर के बालों से नीचे तक और इर्द-गिर्द त्वचापर्यन्त जो देह है वही जीव है, वही संपूर्ण आत्मपर्याय है । यह जबतक प्राणधारी है, जीता है; और मरने पर नहीं जीता । जबतक शरीर है तबतक जीव । शरीर का नाश होने पर जीव भी नहीं रहता । शरीर के जलने पर कपोतवर्ण अस्थियाँ रह जाती हैं । चार पुरुष और पाँचवीं माँची (अरथी)ये ही वापस गाँव में आते हैं ।
___"जीव अन्य है और शरीर अन्य, यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा कहनेवाले स्वयं भी यह नहीं जानते कि आत्मा दीर्घ है या इस्व ? आकार में वह परिमण्डलाकार है, गोल है, त्रिकोण है, चतुष्कोण है, षट्कोण है या
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