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संयम - निर्वाह के लिए विचरता हुआ अनगार आनेवाले कष्टों को सहन करे, मार पड़ने और आक्रोश सुनने पर भी क्रोध और कोलाहल न करे । कष्टों को शान्तचित्त से सहन करने और इन्द्रिय-सुख की चाहना न करने का नाम ही 'विवेक' है ।
प्रवचन
भिक्षु को नित्य आचार्य के पास रह कर आर्य वचनों का अभ्यास करना चाहिये । इसकी प्राप्ति के लिए उसे बुद्धिमान् गीतार्थ की सेवा करनी चाहिये ।
जो धीर, वीर, जितेन्द्रिय और आत्मगवेषी हैं, जो घर में प्रकाश और संसारतरण का उपाय न देखकर श्रमणधर्म स्वीकार करते हैं, जो शब्द, स्पर्शादि विषयों में आसक्त नहीं हैं और जो आरंभ- त्यागी तथा जीवित से निरपेक्ष हैं वे अवश्य ही बन्धन से मुक्त होते हैं ।
ऊपर जो विस्तृत रूप से हेय - उपादेय का निरूपण किया है उसका सार यही है कि मान, माया और सर्व प्रकार की सुखशीलताओं को छोड़ कर विद्वान् मुनि निर्वाण का अनुसन्धान करे ।
दार्शनिकों की मूलशाखाएँ
जिनका वादी लोग नाना प्रकार से वर्णन करते हैं ऐसी दर्शनों की मूल शाखाएँ चार हैं- क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद । कुशल भी अज्ञानी अपने मत का समन्वय नहीं कर सकते और न वे अपनी शंकाओं की निवृत्ति ही कर सकते हैं, क्योंकि उनके गुरु भी तो अज्ञानी होते हैं । वे अपने शिष्यों को अज्ञान के सिवा और बता ही क्या सकते हैं ? वास्तव में बिना विचारे बोल कर अज्ञानी मृषावाद का पोषण करते हैं ।
सत्य को असत्य समझते और बुरे को भला कहते हुए विनयवादी सर्वत्र विनय का ही समर्थन करते हैं । यथार्थज्ञानी न होते हुए भी वे कहते हैं कि हमारे मत में विनय ही मुक्ति का कारण है ।
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१. सूत्रकृताङ्ग श्र० १, अध्याय ९, १० १७७-१९५ /
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