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श्रमण भगवान् महावीर भिक्षु भूखा रहे पर गृहस्थ के पात्र में भोजन न करे । नग्न फिरे पर गृहस्थ का वेष कभी न पहने ।
विद्वान् भिक्षु चारपाई अथवा पलंग पर न बैठे, गृहस्थ के घर में आसन न लगावे और उनके कामों की पूछताछ कर पूर्वावस्था का स्मरण न करे ।
विद्वान् भिक्षु यश, कीर्ति, प्रशंसा, वन्दन, पूजन और विषयसुख की कभी इच्छा न करे ।
जितने से अपना निर्वाह हो सके भिक्षु उतना ही आहार-पानी ग्रहण करे अथवा दूसरे भिक्षुओं को दान करे, अधिक नहीं ।
यह सब निर्ग्रन्थ महामुनि महावीर ने कहा है। उन्हीं अनन्तज्ञानी और अनन्तदर्शी भगवान् ने इस धर्म और ज्ञान का उपदेश किया है ।
भिक्षु को बातें करते हुए दो आदमियों के बीच में नहीं बोलना चाहिये और न उसे कपट-वचन ही कहना चाहिये । वह जो भी बोले विचारपूर्वक बोले । चार भाषाओं में तीसरी (सत्यामृषा) वह भाषा है जिसे बोल कर बोलनेवाले पीछे पश्चात्ताप करते हैं ।
'जो गुप्त है उसे कभी प्रकाश में मत बोलो' निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र की यही आज्ञा है।
___ होला ! सखे ! वासिष्ठि ! इत्यादि स्नेहपूर्वक संबोधनों से और 'तू' 'तुम' इत्यादि तिरस्कारसूचक वचनों से भिक्षु किसी को न बुलाये ।
भिक्षु को सदा सुशील रहना चाहिये और कुशीलों की तरफ से होनेवाली प्रलोभक बुराइयों को जानते हुए उसे उनका संग तक न करना चाहिये ।
बिना कारण मुनि गृहस्थ के घर में न बैठे. बच्चों के खेल न खेले, अधिक न हँसे और सांसारिक सुख की उत्कण्टा न करे, किन्तु यतनापूर्वक श्रमणधर्म का आराधन करता हुआ अप्रमादी होकर विचरे ।
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